धर्म

ओशो : काहे होत अधीर

अपने को जिसने पहचान लिया उसने परमात्मा को पहचान लिया। जो अपने को बिना पहचाने परमात्मा को पहचानने चलता है, परमात्मा को तो पहचान ही नहीं पाएगा, अपने को भी नहीं पहचान पाएगा। क ख ग से शुरू करना होगा। और क ख ग तुम हो। तुम्हारे भीतर जलना चाहिए दीया। तुम्हें ही बनना होगा दीया, तुम्हें ही तेल, तुम्हें ही बाती। हां, जरूर रोशनी उतरेगी ऊपर से, मगर इतनी तैयारी तुम्हें करनी होगी—दीया बनो, तेल बनो, बाती बनो। आएगा प्रकाश, सदा आया है। उतरेगी किरण। तुम्हारी बाती जलेगी। रोशन तुम होओगे। वह तुम्हारी जन्मजात क्षमता है। पर इतनी तैयारी तुम्हें करनी होगी। और उस तैयारी का पहला चरण है तुम्हें यह याद दिलाना कि तुम जैसे हो, जहां हो, यह सचाई नहीं है।
आज के सूत्र इसी बात की स्मृति को दिलाने के लिए हैं। चुभेंगे तीर की तरह छाती में, क्योंकि पीड़ा होती है यह बात जान कर कि मैं व्यर्थ जी रहा हूं। इसलिए तो मूढ़जन संतों को कभी क्षमा नहीं कर पाते। ज्ञानी तो उनके पीछे चल पड़ते हैं, मूढ़ उन्हें क्षमा नहीं कर पाते। ज्ञानी तो उनकी बात सुन कर अपने को बना लेते हैं, मूढ़ संतों को मिटाने में लग जाते हैं, क्योंकि चोट लगती है। और चोट को भी सीढ़ी बना लेना बड़ी कला है।
और संत भी क्या करें? कितना ही सोच—समझ कर वार करें, कितना ही बारीक वार करें, चोट तो लगेगी ही लगेगी। सोते आदमी को जगाओगे तो हिलाओगे तो ही; हिलाओगे तो उसके सपने भी चरमरा कर टूट जाएंगे। और कौन जाने सपने बड़े सुंदर हों! स्वर्ण के महलों के हों! कौन जाने सपने में वह आदमी सम्राट हो! तुम पर नाराज होगा, तुमने उसका सपना तोड़ दिया। और जब सपने में कोई होता है तो सपना सच मालूम होता है, एकदम सच मालूम होता है। जो जागा है उसे लगता है कि झूठ होगा। झूठ है ही। जागे को तो निश्चित ही झूठ है। सपने में जो बड़बड़ा रहा है, जागा हुआ जानता है—विक्षिप्तता में है, जगा दूं इसे। उसके भीतर अनुकंपा जगती है। लेकिन जो सोया है और सुंदर सपना देख रहा है, जगाने वाला उसे दुश्मन मालूम होता है।

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