धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—67

एक गुरू और शिष्य तीर्थ यात्रा के लिए पैदल जा रहे थे। आज से 50-60 वर्ष पहले अधिकतर पैदल ही तीर्थ-यात्रा पर लोग जाया करते थे। जंगल, पहाड़, नदी, नाले, कांटे सभी कुछ आए। दोनों गहन जंगल में से गूजर रहे थे। आस पास कोई गांव या आश्रम कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। गुरू ने कहा बेटा, जंगल तो बहुत वीरान है, फिर भी देखो कही कोई सराय या कुँ आ, बावड़ी आदि दिखाई दे जाए। पहले सेठ साहूकार जगह-जगह कुएँ, धर्मशाला आदि बनवा देते थे ताकि पथिक को पानी मिल जाए और को ठहरने की जगह मिल जाए।

पहले के सेठ पुण्य कार्य में अपना सहयोग अच्छा देते थे। उसी धन को आजकल शोबाजी में लगाकर धन का दूरूपयोग किया जा रहा है। पहले यह दिखावा कम था। पैसे का सदुपयोग ज्यादा था। उस शिष्य ने इधर उधर देखा तो एक कुँआ दिखाई दिया और साथ ही एक छोटी सी धर्मशाला भी। दोनो उस र्धम शाला में गए। गुरूदेव ने कहा बेटा आज रात को यहीं विश्राम करेंगे। रात को स्नान किया, पूजा पाठ की। जब विश्राम के लिए लेटे तो शेर दहाडऩे की अवाज सुनाई देने लगी। गुरूदेव ने कहा दोनो का एक साथ सोना ठीक नहीं है। बेटा पहले तुम सो जाओ मैं पहरा दूंगा। शिष्य ने कहा, गुरूदेव पहले आप विश्राम किजिए। क्योंकि आप सुबह जल्दी उठ जाते हैं, अत: पहले आप सो जाओ मैं आपकी सेवा में जागृत रहता हूँ। शिष्य ने चरण दबाए, नींद आ गइ्र। एक बजे के करीब गुरूदेव उठे और कहा, बेटे। अब तुम सो जाओ। शिष्य सो गया।

गुरूदेव उठे, स्नान किया और भजन-भाव में लग गए, इतने में एक साँप आया ,बड़ा भयानक साँप था। शिष्य की छाति पर बैठ गया। ज्योंहि साँप ने फुंफकार की, गुरूदेव का ध्यान टूटा, और उस काले सांप को देखा। देखकर बोले खबरदार इसको काटना नहीं। भक्ति की शक्ति से वह नाग आदमी बन गया। इच्छादारी जो नाग होते है वह कोई भी रूप धारण कर सकते है। वह आदमी बन गया और हाथ जोडक़र कहले लगा, महाराज मैं नाग हूँ। सौ वर्ष पहले इसने मेरा खून पिया था। आज यह मुझे मिल गया है। मैं अपना बदला अवश्य लूंगा। गुरूदेव ने पूछा, कितना खून पिया था इसने तुम्हारा? छंटाक। गुरूदेव ने कहा, हे सर्पराज मैं छंटाक खून निकालकर तुम्हें देता हूं, तुम इसकी छाती में ढक़ मत मारना।

शिष्य गहरी नींद में सोया हुआ है। रात के ढाई बजे हैं। गुरूदेव ने हाथ में छुरी ली और गर्दन से ज्योंहि खून निकालने के लिए हाथ बढ़ाया, शिष्य जग गया, आंखे खुली तो गुरूदेव के हाथ कंाप गए। शिष्य ने पुन: आंखे बन्द कर ली। सोने का बहाना किया। गुरूदेव ने छंटाक खून गर्दन के पास से निकाला और साँप को पिला दिया। खून पीकर साँप चला गया। गुरू जड़ी बूंटियों का जानकार था, जंगली दवा घाव पर लगाई, खून बन्द हो गया।

गुरूदेव ने शिष्य से पूछा, बेटा मेरे हाथ में छुरी देखकर क्या तुम्हें छर नहीं लगा? शिष्य ने उठकर चरणों मे प्रणाम किया और विन्रम शब्दों में निवेदन किया, गुरूदेव । मुझे आप पर पूरा भरोसा है, मैंने सोचा कि गुरूवर यदि मेरी गर्दन भी काटेंगे तो भी इसमें मेरा कल्याण ही होगा। गुरूवर ऐसा काम नहीं कर सकते जिससे मुझे काई हानि हो। धन्य है ऐसे विश्वासकर्ता शिष्य पर। ऐसे विश्वासी शिष्यों का उद्धार निश्चित है।

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