धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—70

धर्म प्रमी सज्जनों गीता में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट लिखा हैं, मैं इन्द्रियों में मन हूँ। अत: मन बड़ा बलवान् होता है। मन की इच्छा पर ही इन्द्रियाँ क्रियान्वित होती हैं। नेत्र और कान ये दो द्वार है, जिनमें से भगवान् हमारे अन्दर हृदय में प्रवेश करते हैं। इसलिए आँखों को और कानों को हमेशा पवित्र रखो। बार-बार श्रीकृष्ण कथा का श्रवण करो और बार बार उसकी छवि को आँखों से निहारो तो उस श्याम-सुन्दर की सलोनी सूरत आँखों के माध्यम से हमारे हृदय में अकिंत हो जायेगी।

मन को निर्मल बनाने का एक मात्र साधन है, परमात्मा का सुमिरण। यदि हर क्षण परमात्मा का सुमिरण। यदि हर क्षण परमात्मा अपने मन में बसें रहेंगे तो पाप आ ही नहीं सकता। परमात्मा से प्रेम करना है तो सन्तजनों के सम्पर्क में रहना आवश्यक है, क्योंकि सन्तजन ही परमात्मा के प्रतीक होते हैं। सन्तों से प्रेम करो। मनुष्य दुखी क्यों होता हैं? वह दुखी इसलिए होता है कि वह पत्नी से, धन -सम्पत्ति से, सांसारिक ऐश्वर्य आदि से तो प्रेम करता है परन्तु परमात्मा से प्रेम नहीं करता।

मनुष्य अपने प्रेम पात्र बदलता रहता है परन्तु उसे सुख शान्ति तथा आनन्द कहीं भी नहीं मिलता। बचपन में माँ से प्रेम करता है, कुछ बड़ा होने पर मित्रों से प्रेम भी करता है। विवाह के बाद पत्नी से प्रेम करता है। थोड़े समय के बाद जब विचारों में टकराव आता है, तो कहता है कि मैंने तुम से शादी करके बड़ी भूल की हैं। फिर अपने बेटे से प्रेम करने लगता है। जब बेटा स्वार्थी हो जाता है तो धन में शान्ति खोजता है, परन्तु वहां भी निराशा ही हाथ लगती है। अत: हे भोले मानव। दर दर की ठोकरे खाने की बजाय अच्छा यही है कि परमात्मा से प्यार करो।

आजकर लोग भक्ति तो करते हैं, परन्तु भगवान् से सांसारिक सुख ही मांगते हैं अत: भक्ति सार्थक नहीं होती, क्योंकि ऐश्वर्य आदि क्षणिक सुख तो दे सकते है परंतु स्थायी आनन्द नहीं । इसीलिए मानव दु:खी है। यदि सच्चा और स्थायी आनन्द चाहते हो तो परमात्मा को साध्य मानिए। यदि परमात्मा को प्राप्त कर लेंगे तो परमात्मा ही बन जाएँगे। परमात्मा को पाने की चाह रखना सबसे उत्कृष्ट भावना है और परमात्मा से कुछ पाने की चाह रखना सबसे विकृष्ट भावना है।

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