धर्म

ओशो : सारे उपद्रव ठहर जाते है

समेर का वृक्ष न देखा। समेर का फूल है संसार। उड़ जाती है कभी भी रूई। ऐसा ही संसार बिखर जाता है। हम बना भी नहीं पाते और बिखर जाता है। हम बनाते ही रहते है और बिखर जाता है। सभी अपनी यात्रा के मध्य में ही गिर पड़ते है और समाप्त हो जाते हैं। और बना भी हम क्यास रहे हैं? बादलों को मुठ्ठियों में बांध रहे हैं,कि ओस-कणों को इकठ्ठा कर रहे हैं।
और जिसने इसमें ही अपने को उलझाया,वह पछतायेगा बहुत। बहुत-बहुत का सो.. पछतरायेगा। क्योंकि यह अवसर अपूर्व था। इस अवसर में सुंदर भक्ति अनूप… प्रेम का दीया जल सकता था, परमात्मा-प्रेम की ज्योकि बन सकती थी। मगर हम अंधेरे को ही इकठ्ठा करते रहे। हम अंधेरे की ही गठरियां बांधते रहे। हम अंधेरे को तिजोडिय़ों में सम्हालते हैं।जीवन आधार प्रतियोगिता में भाग ले और जीते नकद उपहार
जो सह आपार सागर है-अंधेरे का,मृत्यु का-इसे पार कैसे करोगे? यह कैसे पार होगा? प्रेम की नाव बनाओ। और सब नावें डूब जायेंगी। धन की नाव डूब जाती है। पद की नाव डूब जाती है। बस एक नाव नहीं डूबी कभी- प्रेम की नाव।
प्रेम के माध्यम से यह घटना घट गयी है कि अब सतगुरू मेरे भीतर बैठ गये हैं। धनी धरमदास कहते है: सतगुरू बैठे मुख मोरि,काहि गोहराइब हो। अब तो पुकारने की भी जरूरत नहीं रही। अब तो प्रार्थना की भी जरूरत नहीं रही। अब कैसा भजन, अब कैसा कीर्तन। अब तो श्वास-श्वास उसी में पगी है,उसी में रमी है। रक्त में वही बह रहा है। हृदय में वही धडक़ रहा है।पार्ट टाइम नौकरी की तलाश है..तो यहां क्लिक करे।
सतगुरू बैठे मोरि,काहि गोहराइब हो। ऐसी घड़ी जरूर आती है अगर शिष्य झुक जाये। और उस छोटी-सी बूंद को-अदृश्य बूंद-को अपने भीतर ले-ले। जैसे बूंद को अपने भीतर ले लेती है और बूंद फिर मोती बन जाती है- ऐसे गुरू की सीप बूंद को शिष्य जब भीतर अपने ले-ले तो मोती बनता- मोती,जिससे बहुमूल्य और कोई मोती नहीं है। ऐसी संपदा मिलती है जो अकूत है। ऐसा साम्राज्य मिलता है,जो शाश्वत है। फिर कैसी प्रार्थना। फिर कैसी पूजा। फिर संत्सग पर्याप्त है। और संत्सग भीतर होने लगा तो बाहर की भी जरूरत नहीं रह जाती। जहां शिष्य मगन होकर बैठ जाता है,वहीं गुरू से जुड़ जाता है।
अब गाऊं कि न गाऊं,पुकारू के न पुकारू मगर मेरे भीतर जो सत्य जम कर बैठ गया है वह डुलता नहीं,हिलता नहीं। निस्पन्द,निस्तरंग। सतगुरू बैठे मुख मोरि,काहि गोहराइब हो। अब मैं क्यो पुकारू? लेकिन कभी-कभी मौज में,कभी-कभाी आंनद में पुकारू भी,तो भी कुछ हर्ज नहीं। भजन करूं या न करूं।जीवन आधार न्यूज पोर्टल के पत्रकार बनो और आकर्षक वेतन व अन्य सुविधा के हकदार बनो..ज्यादा जानकारी के लिए यहां क्लिक करे।
सतनाम गुन गाइब…। कभी-कभी गुण भी गाता हूं। वह भी बहने लगता है,जैसे बाढ़ आ जाती है। रोके नहीं रूकता।
सतनाम गुन गाइब सत न डोलाइब हो। अब चाहे चुप रहूं चाहे बोलू,उठूं कि बैठू कि सोऊ कि जागू..सत न डोलाइब हो… वह जो भीतर ठहर गया है सत ,अब डोलता नहीं। उसके ठहरते ही सारा जगत ठहर जाता है समय ठहर जाता है। उसके ठहरते ही सारे उपद्रव ठहर जाते है। उसी ठहराव का नाम मोक्ष है। कृष्ण ने उसी को स्थिर-धी: कहा है,स्थितिप्रज्ञ कहा है।
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