धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—91

नारदजी के पूर्व जन्म की कथा इस प्रकार है और नारद जी स्वयं कहते हैं, यह सन्तों की कृपा का ही फल है कि आज मैं ब्रह्मा जी का पुत्र हूं, पूर्व जन्म में नारदजी का नाम था, हरिदास। माता विधवा थी। एक सेठ जी के यहां दासी का कार्य किया करती थी। रसोई पकाया करती थी। सेठ ने यह नियम बना रखा था कि उस नगरी में कोई भी सन्त आता था,उनसे वह मिलने दर्शनार्थ जाता था। भोजन के लिए उनको आग्रह करके अपने घर लाया करता था।

सन्तों के आने पर वह अपने को भाग्यशाली समझता था तथा परमात्मा से हाथ जोडक़र कहता था, हे परमात्मा आज मैं धन्य हो गया हूं,जो आपने मुझ दास पर कृपा करके सन्त को इस दुनिया को पवित्र करने के लिए प्रेरित किया,क्योंकि बिनु हरि कृपा मिले नहीं सन्ता। सन्तों ने सेठ का आग्रह,स्वागत,सत्कार,विनय आदि गुणों से प्रभावित होकर अपने चतुमार्स की घोषणा कर दी। चार मास तक सन्त एक ही स्थान पर रहते हैं,उसे चमुमार्स कहते है।

हरिदास की माता भोजन बड़े भक्ति -भाव से बनाती थी। हरिदास जी उस समय केवल 8-9 साल का अबोध बालक था साधु की सेवा का कार्य उनको दिया गया,कमरे की सफाई करना, जब सन्त विश्राम करते थे उस समय चरण दबाना आदि सेवा कार्य हरिदास जी तन-मन से किया करते थे । एक दिन जब सन्त भोजन प्रसाद ले रहे थे, तो उन्होंने हरिदास को बुलाया और अपने हाथों से बड़े प्यार से अपनी थाली में से उसको कुछ प्रसाद दिया। उस प्रसाद को जब उस अबोध बालक ने खाया तो सन्त कृपा से उसके जन्म-जन्मांतर के विकार दूर हो गए। आत्मा में ज्ञान और भक्ति का प्रकाश हो गया।

चार महीनों तक धर्माेपदेश सुना। जाने का समय आया हरिदास रोने लगा, चरणों में गिरकर कहने लगा,भगवन मैं कैसे आपके बिना रह पाऊंगा? आप को कथाज्ञान आदि के द्वारा जो अमृत की बौछार किया करते थे उससे में विभोर उठता था, अब वह अमृत-पान मुझे कौन करायेगा? सन्तों ने सरल हृदय बालक के सिर पर प्रेम भरा अपना वरद हस्त रखा और पुन: शीघ्र मिलने का आश्वासन देकर विदा ली।
हरिदास उनकी जुदाई सहन नहीं कर पाया और उसी दिन रात के 12 बजे सन्त शरण में पहुंच गया,सुबह होने पर सन्तों के दर्शन किए,प्रणाम किया।

हरिदास को देखकर सन्तों को बड़ा आश्चर्य हुआ और पूछा, कैसे आए? हरिदास। भगवन् इस मन मंदिर में आपकी मूर्ति बस चुकी है,अब मैं आपसे बिछुड़ कर नहीं रह सकता। सन्त बालक हरिदास भक्ति,प्रेम को देखकर गुरूमंत्र दिया और कहा,बेटे मैं तुमसे प्रसन्न हूं। तुम्हें जो गुरूमंत्र दिया गया है उसका अधिकाधिक जाप करना। तुम जानते हो,तम्हारे पिता का देहान्त बहुत पहले हो चुका है। बेचारी विधवा मां ने तुम्हें कितनी आशा से पाला है। तुम अपनी मां के इकलौते पुत्र हो। उसकी सेवा करना तुम्हारा प्रथम कर्तव्य है,इसीलिए मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं कि तुम शीघ्र ही वापिस घर जाओ माँ की सेवा करो, जब वह परमधाम को चली जाए उसके बाद गुरू सेवा में आ जाना।

गुरू आज्ञा को शिरोधार्य करके हरिदास वापिस माँ के पास आ गया। एक दिन में ही माँ का तो बुरा हाल हो गया था,बेटे को देखते ही ऐसा लगा मानो शरीर में प्राण वापिस आ गए हों। भक्ति संकीर्तन आदि में रत माँ और बेटे का समय आनन्दमय व्यतीत होने लगा। कुछ समय के बाद माँ का देहावासन हो गया।

संसारिक क्रिया क्रम के उपरान्त हरिदास ने पुन: गुरू-शरण मे जाने का निश्चय किया। वीणा हाथ में ली और गाते हुए प्रस्थान ने पुन: गुरू-शरण में जाने का निश्चय किया। वीणा हाथ में ली और गाते हुए प्रस्थान किया। बाद में गुरु जी की विशेष कृपा से हरिदास को नारदजी के रुप में जन्म मिला। गुरु कृपा से हरिदास ब्रह्मा के पुत्र नारद बने।

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