धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—93

एक वन में एक नवयुवती रो रही थी। नारदजी उस रोती हुई युवती के पास आए और रोने का कारण पूछने लगे। युवती ने जब देवर्षि नारदजी को अपने सामने खड़े देखा, तो प्रणम करके बोली हे महात्मन् मेरे अहोभाग्य है जो इस जंगल में दु:ख के समय आपके दर्शन मुझे मिले। परमात्मा की असीम कृपा की है मुझ पर और मेरा दु:ख दूर करने के लिए आपको भेजा है क्योंकि बिनु हरि कृपा मिले नहीं सन्ता।

प्रथम भक्ति किसे कहते है? जब हृदय में सन्त दर्शन की इच्छा उत्पन्न होती है,उसे प्रथम भक्ति समझना चाहिये। यह इच्छा कब उत्पन्न होती है? जब सन्तों के प्रति दिल में श्रद्धा हो। यदि श्रद्धा नहीं होगी तो सन्त दर्शन की इच्छा उत्पन्न ही नहीं होगी। भक्ति करने के लिए भक्ति का प्रथम चरण है श्रद्धा। यदि हृदय रूपी बगिया में श्रद्धा रूपी बीज को बो लिया, तो उसे अंकुरित करने के लिए सन्त दर्शन रूपी पानी की आवश्यकता होगी, जब आप सन्त दर्शन करेंगे तो श्रद्धा रूपी बीज अकुंरित होकर बाहर लहलाने लगेगा।

आँखों से जब गुरूजनों के दर्शन पाएँगे तो उनका तेज से देदीप्यमान चेहरा आपकी आँखों में बस जायेगा और भक्ति रूपी फल आपको मिल जायेगा। आपने केवल सन्त ही नहीं,अपितु सन्त के रूप में परमात्मा को पा लिया।

कई बार कई जगह धरती उर्वरा होती तो किसान भाई उस बंजर धरती को साफ करते हैं तथा उसमें उर्वरा मिट्टी को डालकर,हल जातते हैं, तो वह बंजर भूमि उर्वरा बन जाती है। ठीक इसी प्रकार कई भक्त आत्माओं के दिल में प्रेम,श्रद्धा,वैराग्य आदि को जागृत करना होता हैं। नारदजी ने उस युवती से कहा, तुम कौन हो? अपना परिचय दिजिए और ये दो वृद्ध जो लेटे हुए हैं ये कौन हैं?

मेरा नाम भक्ति हैं,ये ज्ञान और वैराग्य नामक मेरे पुत्र हैं। समय के फेर से ही ये ऐसे जर्जर हो गए हैं। हाथ जोडक़र भक्ति ने कहा -हे मुनिवर आप ध्यान देकर मेरा वृन्तात सुनें। वैसे तो मेरी कथा प्रसिद्ध हैं,फिर भी मैं आपको सुना हूं, आप सुनकर ही मुझे शान्ति प्रदा करें।

मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई,कर्णाटका में मेरी वृद्धि हुई। कहीं कहीं महाराष्ट्र में भी मेरा सम्मान किया गया,किन्तु गुजरात में जब मैं आई तो बुढ़ापे ने मुझे घेर लिया अर्थात् गुजरात में मैं जीर्ण- शीर्ण हो गई। मैं निस्तेज हो गई। महाराज ये दोनों लेटे हुए मेरे पुत्र हैं-ज्ञान और वैराग्य। वृन्दावन में जब हम आए तो ये दोनों मेरे पुत्र ज्ञान-वैराग्य वृद्ध हो गए अर्थात् यहां ज्ञान और वैराग्य की कोई कीमत नहीं, यहां तो मेरा ही बोलबाला हैं अर्थात् यहां भक्ति की ही कीमत है।

राधे-राधे सबकी जिह्वा पर है। राधे के सिवाय यहां कोई किसी को जानता ही नहीं। उठते राधे,बैठते राधे,जागते राधे,परिचय पूछो तो उत्तर में यही सुनने को मिलता है। राधे राधे । मुख से राधा नाम उच्चरित होने पर भी भक्ति उदास है। नारद जी ने उदासी का कारण जानना चाहा तो भक्ति ने कहा यहाँ ज्ञान और वैराग्य नहीं हैं,इसी से मैं उदास हूं। माँ जवान है,बेटे वृद्ध हैं।

नारदजी ने कहा,माता कलियुग में यही होने वाला है। माँ-बाप अपने बेटे-बेटियों की सेवा किया करेंगे। सास-ससुर की सेवा बहूं नहीं करेंगी बल्कि सास बहू को उठाकर सुबह चाय प्याला हाथ में लेकर जागायेगी और कहेगी बेटी याय तैयार है पी लो। ज्ञान और वैराग्य के बिना भक्ति केवल पंगु है। शरीर कितना भी सुन्दर क्यों न हो यदि आँख और पैर न हों तो सब बेकार हैं,इसी प्रकार ज्ञान आँख है और वैराग्य पांव।

इसीलिए सर्वप्रथम ज्ञान से हर वस्तु को जानो,अब असलियत समझ में आ जायेगी,संसार असार नजर आने लगेगा,अच्छे बुरे का ज्ञान होने पर दिल में वैराग्य उत्पन्न होगा और भक्ति का प्रादुर्भाव स्वयमेव हो जायेगा। वैराग्य का अर्थ यह नहीं कि घर बार छोडक़र जंगल में चले जाओ। नहीं,तुम घर में रहो, सत्कार्य करो,सन्त गुरूजनों की सेवा करो, अनाथों की सहायता करो,ऐसा कोई कटु वचन मत बोलो जिसको सुनकर किसी की आत्मा को ठेस लगे।

कहने का तात्पर्य है बुरे कामों से घृणा और अच्छे कार्यो में लगना ही वैराग्य है। इसीलिए प्रेमी भक्त आत्माओं ज्ञान और वैराग्य सहित की गई भक्ति ही हमें लक्ष्यार्थ तक पहुंचा सकती हैं। गुरूओं को धोबी कह उपमा दी गई,जैसे धोबी का काम है मैले वस्त्र को धोकर साफ करना, वैसे ही गुरूजन आत्मा पर लगे विकारों को,काम,क्रोध,मोह,ममता ,लोभ,राग ,द्वेष आदि सबको ज्ञानरूपी साबुन से दूर करके आत्मा को निश्चल,निष्पाप,निर्मल बना देते हैं। यदि सन्तों के पास आकर भी ये विकार दूर नहीं होते तो समझना चाहिए हम में बहुत बड़ी कमी है,जैसे चुम्बक उसी लोहे को खींचती है जिस पर जंग न हो,ठीक इसी प्रकार यदि गुरूओं से, सन्तों से अपने अवगुणों को छुपाओगे,तो घाटे में रह जाओगे, इसीलिए उनके सामने अपने जीवन को एक खुली किताब की तरह आगे रख दो,सभी रोग दूर होकर आप स्वच्छ हो जाओगे।

नारदजी ने भक्ति के दोनो पुत्रों ज्ञान और वैराग्य को स्वस्थ बनाने के लिए गीता,रामायण,शिवपुराण, महाभारत, अआदि सब सुनाए, परन्तु उनकी सुषुप्ति दूर नहीं हुई, तो नारदजी सनकादिकों के पास गए। सनक,सनन्दन,सनत्कुमार और सनातम ये चार भाई हैं। ये चारों बह्माजी के मानसिक पुत्र हैं, जाकर नारद जी ने प्रणाम किया और कहा,महाराज कोई ऐसा उपाय बताओ ,जिससे ज्ञान और वैराग्य को शक्ति मिले और भक्ति प्रसन्न हो।

सनकादिक ने कहा, नारदजी। उनको स्वस्थ बनाने का एकमात्र उपास हैं,श्रीमद्भागवतमहापुराण की कथा। इस कथा के सुनने से उनमें जागृति आ जायेगी। नारद जी ने कहा, महाराज आप ही उनको भागवत सुनाने की कृपा कीजिए। सनकादिकों ने प्रार्थना स्वीकार की और समय निश्चित करने को कहा। भागवतकथा में देवता और दानव,आस्तिक और नास्तिक सबको आमंत्रित करो, क्योंकि परमात्मा के दरबार में सबका उद्धार होता हैं। आस्तिक को भी भगवान ने बनाया है और नास्तिक को भी उसी ने बनाया है।

भागवत कथा का श्रवण पान करने से ज्ञान और वैराग्य पुन: स्वास्थ्य हुए और भक्ति को भी शक्ति मिली। इसलिए धर्मप्रेमी सज्जनों व बहनों! जहां भी श्रीमद्भागवत कथा होती हैं उसका श्रवण पान अवश्य करना चाहिए।

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