धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—104

एक अम्बरीष नाम के राजा हुए हैं। अम्बर+ईश अर्थात् अम्बर- आकाश,ईश-परमात्मा। जिस प्रकार आकाश सर्वव्यापक है उसी प्रकार परमात्मा भी सर्वव्यापक है। पहले इसको जानो, फिर मानो। जानना एक अलग बात है। जैसे आग के बारे में जान लिया कि अग्रि गर्म होती हैं,फिर उसको छूकर देखा तो अनुभव हुआ इसी प्रकार प्रथम परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करो,फिर भक्ति , ज्ञान ,वैराग्य आदि से उनका हृदय में अनुभव करो।

एक बार राजा अम्बरीष के दरबार में एक कृष्ण भक्त सन्त आए और सात दिनों तक उनके राज्य में रहें। उन्होंने कृष्ण भक्ति का गुणगाान किया। राजा अम्बरीष उन सन्तों से तथा संकीर्तन आदि से इतने प्रभावित हुए कि वे भी कृष्ण भक्त बन गये और कृष्ण-मन्त्र की दीक्षा ले ली। धीरे-धीरे कृष्ण भक्ति में इतने तल्लीन हो गये कि शरीर की क्रियाएं भी भल गये। राजा एकादशी का व्रत किया करता था,परन्तु भक्ति जब पराकष्ठा पर पहुंचती है तो कर्मकाण्ड अपने आप छूट जाता है।

एक बार उनके घर गुरूदेव का पधारना हुआ,राजा ने चरणों में प्रणाम किया,सत्कारपूर्वक आसन पर बैठाया, यथोचित भोजन आदि से सेवा की और फिर विनयपूर्वक प्रार्थना की, हे गुरूदेव मैं एकादशी का व्रत किया करता था, लेकिन पिछली बार एकादशी कब आई कुछ पता नहीं चला और व्रत भंग हो गया,अत: मैं प्रायश्चित करना चाहता हूं। गुरूदेव ने फरमाया,राजन् पहले लिए हुए नियम को ऐसे नहीं छोडऩा चाहिए, उस नियम को छोडऩे के लिए उसका उद्यापन करो।

एकादशी का व्रत बहुत कठिन होता है। दशवीं के दिन दोपहर 2बजे भोजन करो,दूसरे दिन खाली पानी लो और द्वादशीवाले दिन कुछ फल आदि अपने हाथ से भूखों को खिलाओ और फिर स्वयं खाओ। परन्तु माताएँ,बहनें जो एकादशी का व्रत रखती है, वह ढोंग व्रत करती हैं और खाने में रोटी खाने की बजाय हलवा,कूटू की पूरी,सामक खीर, फल आदि खूबभत्र्त करती हैं,ऐसा करना अपने आप को धोखा देना है, पाखण्ड है।

व्रत आत्मा की शान्ति तथा शरीर की शुद्धि के लिए किए जाने चाहिए। व्रत करने का अभ्यास जरूर करना चाहिए, क्योंकि कभी कभी आप,हम बाहर जाते हैं वहां यदि शुद्ध आहार न मिले, तो आप बिना किसी कष्ट के भूखे रह सको। इसीलिए व्रत का अभ्यास जरूरी हैं। किसी भी होटल या ढाबे पर शकाहारी भोजन मिलना बहुत कठिन हैं, ऐसे समय पर फलाहार लो। यदि आहार शुद्ध है तो विचार शुद्ध बनेंगे। इस प्रकार व्रत आध्यात्मिक,आत्मिक,शरीरिक और मानसिक शुद्धता के लिए करो,केवल कर्मकाण्ड के लिए व्रत मत करो।

राजा अम्बरीष ने एकादशी व्रत का उद्यापन किया। अड़तालीस घंटो तक भजन संकीर्तन आदि चलता रहा। द्वादशी वाले दिन आरती-पूजन आदि क्रियाओं से निवृत्त होकर सन्त महात्मा,गुरूजनों को विधिपूर्वक भोजन और यथाशक्ति दान दक्षिणा देकर,स्वयं भोजन करने ही वाले थे कि सांयकाल के पांच बज गए, इतने में दुर्वासा ऋषि का पदार्पण हुआ। राजा ने साष्टांग चरणों में प्रणाम किया और कहा, अहोभाग्य हैं मेरे, आप जैसे तपस्वी सन्त के चरणों में मेरी कुटिया पवित्र हो गई। भोजन प्रसाद के लिए प्रार्थना की। ऋषिवर ने कहा कि सन्ध्याकालीन स्नान करने के पश्चात् भोजन लेंगे। ऋषिवर अपने सहयोगी सन्तों के साथ गंगा स्नान करने चले गए।

गर्मी का महीना था। शाम के 6 बज गए लेकिन दुर्वासा ऋषि स्नान करके नहीं लौटे । ब्रह्मणों ने कहा, महाराज, सवा सात बजे तक दिन रहता है,केवल दस मिनट बाकी है, द्वादशी का महूर्त समाप्त होनेवाला हैं, ऋयोदशी लग जायेगी और आपका व्रत व्यर्थ ही जायेगा, अत: द्वादशी के मूहूर्त में ही प्रसाद लेना होगा। राजा ने कहा दुर्वासा ऋषि प्रसाद लेने के लिए कहकर गये हैं,उनके प्रसाद लेने के पहले मैं कैसे कर ले सकता हूं? ब्रह्मणों ने कहा,महाराज कृष्ण का लगाया हुआ भोग हैं, अत: आप चरणामृत ले सकते हो। प्रसाद बाद में ले लेना। ज्योंहि चरणामृत राजा ने लिया, त्योंहि दुर्वासा ऋषि पधार गए, देखा राजा चरणामृत पी रहा है, तो क्रोध आ गया और कहा, राजन् तुमने सन्त से पहले खाकर प्रसाद झूठा कर दिया।

घर में सभा में, मन्दिर में,या आश्रम में सबसे प्रथम सन्त को प्रसाद दो,फिर सब को दो तथा अन्त में स्वयं खाना चाहिए। मुझे आमंत्रित करके मुझसे पहले तुमने प्रसाद कैसे लिया? राजा ने क्षमायाचना की और प्रसाद ग्रहण करने की प्रर्थाना की, लेकिन दुर्वासा ऋषि ने प्रसाद लेने से इन्कार कर दिया और क्रोधित होकर अपनी दाढ़ी का एक बाल उखाड़ा,मन्त्र विद्या से उस बाल से एक राक्षसी प्रकट हुई ,ऋषि ने उससे कहा, राजा ने हमारे से पहले प्रसाद ग्रहण किया है,अत: इसे समाप्त कर दो।

ध्यान रखना सन्त महात्मा भी अलग अलग प्रवृत्ति के होते हैं- सात्विक,राजसिक,तामसिक प्रवृत्ति। तपस्या करनेवालों को तामसिक भाव आ जाता है और क्रोध उत्पन्न होने से किसी को भी शाप दे डालते थे। क्रोध के साथ साथ अंहकार भी उत्पन्न हो जाता हैं। क्रोध अंहकार आदि तामसी भाव है, इसलिए भक्तिमार्ग में तपस्या बाधक सिद्ध होती है,क्योंकि तपस्या करने से सिद्धियां प्राप्त हो जाती है और सिद्धियां भी भक्ति मार्ग में बाधक हैं,रूकावट हैं। राजा अम्बरीष ने भगवान् से प्रार्थना की त्राहि माम् त्रहि माम्। भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र प्रकट हुआ और उस राक्षसी का सिर काट दिया।

अब दुर्वासा ऋषि डर के मारे भाग रहे हैं। आगे आगे ऋषि दौंड़ रहे हैं और उनका पीछा करता हुआ सुदर्शन चक्र उनके पीछे दौड़ रहा है। ऋषि कैलास पर्वत पर आए और शिव भगवान से प्रार्थना करने लगे,महाराज बचाईए। इस सुदर्शन च्रक से मेरी जान बचाओ। शिवजी ने कहा,हे महात्सन् यदि आप यहां रहेंगे तो ये सुदर्शन चक्र कैलास पर्वत को भी जला कर भस्म कर देगा। यदि इससे बचना चाहते हो तो जाओ विष्णु भगवान् के चरण पकड़ लो,क्योंकि चक्र उसीका है। सुनकर दुर्वासा ऋषि बैकुण्ठ में आए और विष्णु के चरणों में प्रणाम किया और प्रार्थना की,भगवान् इस सुुदर्शन चक्र से मुझे बचाईये।

विष्णु ने कहा,हे ऋषिवर। इस च्रक से बचाने की मुझमे क्षमता नहीं हैं,यह च्रक मेरा नहीं हैं,यह भक्त राजा अम्बरीष का है,वही तुम्हें जीवन दान दे सकते हैं। वह देखने में राजा है,लेकिन वह उच्चकोटि का साधक भी हैं। राजा और रानी सुबह चार बजे उठते हैं। पीछे बनी वाटिका में पानी सिंचन करते हैं। स्नान आदि से निवृत्त होकर दो घण्टे पूजा पाठ करते हैं और फिर दरबार में जाते हैं। राज कार्य करने के पश्चात् सन्ध्याकालीन पूजा पाठ करते हैं। उस वाटिका से जो फल, अन्न आदि, उत्पन्न होता है उसी से अपना जीवन निर्वाह करते हैं।

इस प्रकार राजा गृहस्थी ही नहीं,अपितु उच्चकोटि का साधक भी है। तुम तो उसकी तुलना में कुछ भी नहीं हो। तुमने उसका अपमान करके अच्छा नहीं किया, जाओ उससे क्षमा मांगो तभी सुदर्शक च्रक से तुम्हारी रक्षा हो सकेगी।

दुर्वासा ऋषि वापस अम्बरीष के पास आए और कहा,राजन् मुझसे भूल हो गई,मुझे बचाओ। राजा बड़ा ही दयालु और करूणावान था, महात्मा के चरणों मे प्रणाम किया और परमात्मा से प्रार्थना की,हे परमात्मा यदि मैंने अपने जीवन में कोई पुण्य किया हो तो उसके बदले में इस सुदर्शन चक्र से ऋषि के प्राणों की रक्षा कीजिए। धन्य है राजा अम्बरीष को, जो अपने हत्यारे को बचाने के लिए परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।

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