धर्म

स्वामी राजदास: सेवा और भक्ति में किसका महत्व अधिक

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काशी के राजा सुशर्मा अपने दरबारियों के हर प्रश्न का जवाब देते थे। एक बार एक व्यक्ति ने दरबार में उनसे पूछा, ‘राजन, मनुष्य के जीवन में भक्ति और सेवा में किसका महत्व ज्यादा है?’ उस समय वह उस प्रश्न का जवाब नहीं दे पाए, लेकिन वह इस बारे में लगातार सोचते रहे। कुछ समय बाद राजा शिकार के लिए जंगल की ओर निकले। लेकिन उन्होंने किसी को साथ में नहीं लिया। घने जंगल में वह रास्ता भटक गए। शाम हो गई। प्यास से उनका बुरा हाल हो गया था। जीवन आधार पत्रिका यानि एक जगह सभी जानकारी..व्यक्तिगत विकास के साथ—साथ पारिवारिक सुरक्षा गारंटी और मासिक आमदनी भी..अधिक जानकारी के लिए यहां क्लिक करे।
काफी देर भटकने के बाद उन्हें एक कुटिया दिखाई पड़ी। वह किसी संत की कुटिया थी। राजा किसी तरह कुटिया तक पहुंचे और ‘पानी-पानी’ कहते हुए मूर्छित हो गए। कुटिया में संत समाधि में लीन थे। राजा के शब्द संत के कानों पड़े। पानी-पानी की पुकार सुनने से संत की समाधि भंग हो गई। वह अपना आसन छोड़ राजा के पास गए और उन्हें पानी पिलाया। पानी पीकर राजा की चेतना लौट आई। राजा को जब पता चला कि संत समाधिस्थ थे तो उन्होंने कहा, ‘मुनिवर, मेरी वजह से आपके ध्यान में खलल पड़ी। मैं दोषी हूं। मुझे प्रायश्चित करना होगा।’
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संत ने कहा, ‘राजन, आप दोषी नहीं हैं इसलिए प्रायश्चित करने का प्रश्न ही नहीं है। प्यासा पानी मांगता है और प्यास बुझानेवाला पानी देता है। आपने अपना कर्म किया है और मैंने अपना। यदि आप पानी की पुकार नहीं करते तो आपका जीवन खतरे में पड़ जाता और यदि मैं समाधि छोड़कर आपको पानी नहीं पिलाता, तब भी आपका जीवन खतरे में पड़ता। आपको पानी पिलाकर जो संतुष्टि मिल रही है वह कभी समाधि की अवस्था में नहीं मिलती। भक्ति और सेवा दोनों ही मोक्ष के रास्ते हैं, लेकिन यदि आप आज प्यासे रह जाते तो मेरी अब तक की सारी साधना व्यर्थ हो जाती।’ राजा को उत्तर मिल गया कि सेवा का महत्व भक्ति से अधिक है।
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