धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—106

इस देश में खट्वांग नामक एक राजा हुए। देववाणी हुई कि 40 मिनट बाद उसकी मृत्यु होने वाली हैं, तो राजा ने राज पाट आदि छोडक़र परमात्मा से अपने मन को जोड़ लिया, ध्यानावस्था में ही उन्होंने अपना शरीर छोड़ा, उन्हें सद्गति मिली और अपनी आत्मा का कल्याण किया। इस सूर्यवंश में बहुत बड़े बड़े प्रतापी राजा हुए। राजा हिरश्चन्द्र भी इसी वंश में हुए जो सत्यवादी कहलाए।

उन्होंने स्वप्र में विश्वामित्र को अपना राज्य दे दिया था, आंखे खुली तो सामने विश्वामित्र को पाया। चरणों में प्रणाम किया सारा राज्य उनको सौंप दिया। राजा अपने पुत्र रोहताश को लेकर महलों से खाली हाथ चल पड़े। राजा ने शमशान में कर लेने का काम किया, रानी तारा ने किसी के यहाँ नौकरी की। उसी दौरान पुत्र रोहताश की मृत्यु हो गई। रानी पुत्र के कलेवर को लेकर शमशान में गई तो राजा ने सवा रूपया कर के रूप में मांगा, रानी का दिल चित्कार कर उठा, धैर्य का बांध टूट गया,और बिलखने लगी तथा राजा हरिश्चन्द्र से कहा, हे प्रिय मेरे पास सवा रूपया तो कहा चार आने भी नहीं है। मुझे अपने पुत्र के दाह-संस्कार की स्वीकृति दीजिए। क्या आप भी मेरी परीक्षा ले रहे हो नाथ? क्या आपका यह पुत्र नहीं हैं?

रानी की दर्द भरी पुकार से राजा की आंखों से भी अश्रुधारा बह निकली, परन्तु कहा, हे प्रिय दु:खों में ही सत्य की परीक्षा होती है। घबराओं नहीं और मुसीबतों का अटल विश्वास से सामना करो, परमात्मा में विश्वास रखो तो सब कार्य नेक हो जाते हैं। कर लेना मेरे मालिक का आदेश हैं अत: कर दिए बिना मैं मुर्दे को नहीं जलाने दूंगा।

यह सुनकर रानी ने अपनी साड़ी में से आधी साड़ी फाडकर कर के रूप में दिया। ज्योंहि चिता पर मृतक शरीर रखने लगी, त्योंहि परमात्मा प्रकट हुए और रोहताश को पुनर्जीवित कर दिया। राजा रानी अपने पुत्र को जीवित पाकर हर्षोल्लास के साथ नाचने लगे, देवताओं ने आकाश से फूलों की बरसात की और जय जयकार की ध्वनि से आकाश भूतल गंूज उठा।

इसी सूर्यवंश में आगे चलकर रघु नाम के राजा हुए,जिनके शाम को एक नवयुवक ऋषिकुमार आया और कहने लगा,हे राजन् मैं गुरूदेव आश्रम् में 20 साल से रह रहा हूं। अब गुरू-दक्षिणा में मेरे गुरूदेव मुझसे चौदह करोड़ असर्फियां मांग रहे हैं तथा उन्होंने साथ में यह भी कहा कि ये असर्फियां शुद्ध कमाई की होनी चाहिए। अत: मैं आपसे इसी मांग हेतु आया हूं। मैंने आपके सत्य की महिमा सुनी है।

राजा रघु ने कहा,हे ब्रह्मण कुमार। आज तो रात हो गई है। सुबह होते ही सर्वप्रथम मैं आपको चौदह करोड़ असर्फियां गुरू-दक्षिणा देने के लिए जरूर दूंगा। अब आप पूजा पाठ करके ध्यान करो, प्रसाद ग्रहण करो तथा विश्राम करो। मैं तुम्हें वचन देता हूं कि यह गुरू दक्षिणा देकर अपने रथ में बिठाकर तुम्हें गुरूआश्रम में पहुंचा दूंगा।

राजा ने अपने मन्त्री को बुलाया और कहा कि रात को चौदह करोड़ असर्फियां गिर कर रख लें,प्रातकाल होते ही ब्रह्मण को दान देना हैं। मन्त्री ने कहार राजन कोष में तो एक कोड़ी भी नहीं है,सब कुछ दान में दे दिया गया हैं,केवल आपके सिर का मुकुट बचा हैं और राज सिहांसन है,बाकी कुछ भी नहीं है। जिस थाल में आप भोजन करते थे, वह चांदी के बर्तन भी दान में जा चुके हैं।

यह सुनकर राजा ने पूछा, मन्त्री। यह बताओ कि मुझसे शक्तिशाली राजा कौन हैं जिसने मुझे कर न दिया हो? मन्त्री ने कहा ,कुबेर ऐसा धनी है,जिसने आज तक कर नहीं दिया,राजन् । राजा ने कहा मंत्री सेना तैयार करो और ब्राह्मणबालक को भी साथ में ले चलो और कुबेर पर चढ़ाई करो कि उसने अभी तक कर क्यों नहीं दिया? यदि मैं युद्ध में हार जाऊं या मुझे वे पकड़ ले तो मेरे बदले में तुम चौदह करोड़ असर्फियां ले लेना। यदि मैं युद्ध में मारा जाऊ तो भी उनसे कर मत छोडऩा। मेरा दिया हुआ वचन झूठा नहीं होना चाहिए।

प्रात:काल होते ही चढ़ाई कर दी। जय जयकार हो रही है। कुबेर को पता चला कि राजा मुझसे कर लेने के लिए सेना सहित आ रहा है तो दौड़ा दौड़ा आया, आकर चरणों में प्रणाम किया और कहने लगा, हे सूर्यवंशी राजा रघु। कोई ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं जो आपका मुकाबला कर सके। मैं सहर्ष आपको अपना राज्य समर्पित करता हूं। राजा ने कहा, मुझे सारा राज्य नहीं चाहिए, केवल ब्रह्मण बालक को चौदह करोड़ असर्फियां दे दो, मैंने इसको वचन दिया है।
तब से सूर्यवंश का नाम रघुवंश,रघुकुल प्रसि। हो गया। और तभी से यह सूक्ति प्रसिद्ध हो गई।
रघुकुल रीत सदा चली आई।
प्राण जाएं पर वचन न जाई।।

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