एक मित्र मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि मैं तो संन्यास चाहता हूं, लेकिन मेरी पत्नी राजी नहीं हैं। और जब मैं घर से चलने लगा, तो उसने तीन दफा मुझसे कसम खिलवा ली कि संन्यास नहीं लेना। मैंने कसम भी खा ली है। तो संन्यास मैं लेना चाहता हूं,लेकिन लूंगा नहीं,क्योंकि आप ही तो कहते हैं कि किसी को दुख नहीं देना चाहिए। अब पत्नी को क्या दुख देना।
मैंने उनसे कुछ बाते कीं, तांकि वे यह संन्यास की बात थोड़ी देर भूल जाएं। मैंने उनसे पूछा: पत्नी तुम्हारी और किन-किन चीजों के खिलाफ हैं? वे बोले अरे साहब हर चीज के खिलाफ हैं। तो मैंने पूछा: सिगरेट छोड़ी? उन्होंने कहा नहीं छूटती। तो मैंने कहा-पत्नी को दुख दे रहे हो? और सिगरेट पीए चले जा रहे हो। और संन्यास छोडऩे को कितने राजी हो, क्योंकि पत्नी को दुख नहीं देना चाहते हो। और कितने दुख पत्नी को दिए नहीं दिए हैं?
और सब दुख देने को तैयारी है। सिर्फ यह संन्यास के संबंध में दुख नहीं देना चाहते। दिखयी पड़ता है न। आदमी तरकीबें निकालता है। आदमी बड़ा कुशल हैं। और जितनी कुशलता आदमी बुद्धों से बचने में लगाता है, उतनी कुशलता किसी और चीज में नहीं लगाता है।
पत्नी घेरकर खड़ी हो गयी है। पीछे जाकर खड़ी हो गयी पति के, ताकि भूल-चूक से भी कहीं पति पीछे न देख लें, द्वार पर खड़ा हुआ गौतम बुद्ध दिखायी न पड़ जाए। उस समय तक लेकिन भगवान की उपस्थिति की अंतप्रज्ञा होने लगी ब्राह्मण को। वह जो भीतर संकल्प उठा था, उसी को सहारा देने बुद्ध वहां आकर खड़े हुए थे। खयाल रखना:जिसके पास होते हो, वैसा भाव शीघ्रता से उठ पाता है। जहां होते हो, वहां दबे हुए भाव उठ जाते हैं तुम्हारे भीतर कामवासना पड़ी है और फिर एक वेश्या के घर पहुंच जाओ। या वेश्या तुम्हारे घर आ जाए, तो तत्क्षण तुम पाओगे: जो तुम्हारे भीतर पड़ी न हो। वेश्या क्या करेगी? बुद्ध के पास पहुंच जाएगी, तो क्या होगा। लेकिन अगर तुम्हारे पास आ गयी,तो कामवासना, जो दबी पड़ी थी, अवसर देखकर, सुअवसर देखकर,उमगने लगेगी। तलहटी से उठेगी, सतह पर आ जायेगी।
यही हुआ । बुद्ध वहां आकर खड़े हो गए। अभी बोलें भी नहीं। उनकी मौजूदगी, उनकी उपस्थिति,उनका अंतनाद, इस व्यक्ति की चेतना को हिलाने लगा। उनकी वीणा इस व्यक्ति के भीतर गूंजने लगी।उनकी अंतप्रज्ञा जागने लगी। उसे अचानक बुद्ध की याद आ गई। अचानक भोजन करना रूक गया। भोजन करने में रस न रहा। एकदम बुद्ध के भाव डूबने लगा। और जैसे-जैसे भाव में डूबा, वैसे-वैसे उसे वह अपूर्व सुगंध भी नासापुटों में भरने लगी,जो बुद्ध को सदा घेरे रहती थी। और चौंका, और गहरा डूब गया उस सुंगध में। और जैसे ही सुंगध में और गहरा डूबा,उसने देखा कि घर उस कोमन दीप्ति से भर गया है, जैसे बुद्ध की मौजूदगी में भर जाता हैं।
वह पीछे लौटकर देखने ही वाला था कि मामला क्या हैं। और तभी पत्नी भी हंस पड़ी। पत्नी इसलिए हंस पड़ी कि यह भी हद्द हो गई। मैं छिपाकर खड़ी हूं इस आशा में कि यह गौतम कहीं और चला जाए भिक्षा मांगने। मगर यह भी हद्द है कि यह भी डटकर खड़ा हुआ है। यह भी जाने वाला नहीं हैं ,दिखता हैं।
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