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सत्यार्थप्रकाश के अंश—46

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आप अल्प सृष्टि और विकल्प प्रलय में भी मोह को कभी न प्राप्त होंगे ऐसा लिख के पुन: दशमस्कन्ध में मोहित होके वत्सहरण किया। इन दोनों में से एक सच्ची बात दूसरी झूठी। ऐसा होकर दोनों बात झूठी जब वैकुण्ठ में राग,द्वेष,क्रोध, ईष्र्या,दु:ख नहीं है तो सनकादिकों को वैकुण्ठ के द्वार में क्रोध क्यों हुआ? जो क्रोध हुआ तो वह स्वर्ग ही नहीं। तब जय विजय द्वारपाल थे। स्वामी की आज्ञा पालनी अवश्य थी। उन्होंने सनकादिकों को रोका तो क्या अपराध हुआ? इस पर बिना अपराध शाप ही नहीं लग सकता। जब शाप लगा कि तुम पृथिवी में गिर पड़ो, इस कहने से यह सिद्ध होता है कि वहां पृथिवी न होगी। आकाश,वायु,अग्रि,और जल होगा तो ऐसा द्वार मन्दिर और जल किस के आधार थे? पुन: जय विजय ने सनकादिकों की स्तुति की कि महाराज पुन: हम वैकुण्ठ में कब आवेंगे? उन्होंने उन से कहा कि जो प्रेम से नारायण की भक्ति करोगे तो सातवें जन्म और जो विरोध से भक्ति करोगे तो तीसरे जन्म वैकुण्ठ को प्राप्त होओगे।
इस में विचारना चाहिये कि जय विजय नारायण के नौकर थे। उन की रक्षा और सहाय करना नारायण का कर्तव्य काम था। जो अपने नौकरों को बिना अपराध दु:ख देंवे उन को उन का स्वामी दण्ड न देवे तो उस के नौकरों की दुर्शशा सब कोई कर डाले। नारायण को उचित था कि उस नौकरों कि जय विजय का सत्कार और सनकादिकों को खूब दण्ड देते,क्योंकि उन्होंने भीतर आने के लिये हठ क्यों किया? और नौकरो से लड़े, क्यों शाप दिया? उन के बदले सनकादिकों को पृथिवी में डाल देना नारायण का न्याय था? जब इतना अन्धेर नारायण के घर में है तो उस के सेवक जो कि वैष्णव कहाते हैं उनकी जितनी दुर्शशा हो उतनी थोड़ी है। पुन: वे हिरण्याक्ष और हिण्यकशिपु उत्पन्न हुए। उन में से हिरण्याक्ष को वराह ने मारा। उस की कथा इस प्रकार से लिखी है कि पृथिवी को चटाई के समान लपेट शिराने धर सो गया। विष्णु ने वराह का स्वरूप धारण करके शिर के नीचे से पृथिवी को मुख में धर लिया। वह उठा। दोनों की लड़ाई हुई। वराह ने हिरण्याक्ष को मार डाला।
इन से कोई पूछे पृथिवी गोल है वा चटाई के समान? तो कुछ न कह सकेंगे,क्योंकि पैराणिक लोग भूगोलविद्या के शत्रु हैं। भला जब लपेट कर शिराने धर ली, आप किस पर सोया? और वराह जी किस पर पग धर के दौड़ आये? पृथिवी को तो वराह जी ने मुख में रखी फिर दोनों किस पर खड़े होके लड़े। वहां तो और कोई ठहरने की जगह नहीं थी। किन्तु भागवतादि पुराण बनाने वाले पोप जी की छाती पर ठड़े होके लड़े होंगे? परन्तु पोप जी किस पर सोया होगा? यह बात-जैसे गप्पी के घर गप्पी आये बोले गप्पी जी, जब मिथ्यावादियों के घर दूसरें गप्पी लोग हैं फिर गप्प मारने में क्या कमती,इसी प्रकार की हैं।
अब रहा हिरण्कशिपु, उस का लडक़ा जो पह्लाद था वह भक्त हुआ था। उस का पिता पढ़ाने को पाठशाला में भेजता था। तब वह अध्यापकों से कहता था कि मेरी पट्टी में राम-राम लिख देओ। जब उस के बाप ने सुना, उस से कहा- तू हमारे शत्रु का भजन क्यों करता हैं? छोकरे ने न माना। तब उस के बाप ने उस को बांध के पहाड़ से गिराया,कूप में डाला परन्तु उस को कुछ न हुआ। तब उसने एक लोहे का खम्भा आगी में तपाके उस से बोला जो तर इष्टदेव राम सच्चा हो तो तू इस को पकडऩे से न जलेगा। प्रह्लाद पकडऩे को चला मन में शंका हुई जलने से बचूंगा या नहीं? नारायण ने उस खम्भें पर छोटी-छोटी चीटियों की की पंक्ति चलाई। उस को निश्चय हुआ,झट खम्भें को जा पकड़ा। वह फट गया, उस में से नृसिहं निकला और उस बाप को पकड़ पेट फाड़ कर मार डाला। पश्चात् प्रह्लाद को लाड़ से चाटन लगा। प्रह्लाद से कहा वर मांग। उस ने अपने पिता को सद्गति होनी मांगी। नृसिंह ने वर दिया कि तेरे इक्कीस पुरूषे सद्गति को गये।
अब देखो यह भी दूसरे गपोड़े का भाई गपोड़ा है। किसी भागवत सुनने वा बांचनेवाले को पकड़ पहाड़ ऊपर से गिरावे के लिये न बचावे चकनाचूर होकर मर ही जावे। प्रह्लाद को उस का पिता पढऩे के लिए भेजता था, क्या बुरा काम किया था? और वह प्रह्लद मूर्ख पढऩा छोड़ वैरागी होना चाहता था। जो जलते हुए खम्भें से कीड़ी चढऩे लगी और प्रह्लाद स्पर्श करने से न जला। इस बात को जो सच्ची माने उस को भी खम्भे के साथ लगा देना चाहिए। जो यह न जले तो जानो वह भी न जला होगा और नृसिंह भी क्यों न जला?
प्रथम तीसरे जन्म में बैकुण्ठ में आने का वर सनकादिक का था। क्या उस को तुम्हारा नारायण भूल गया? भागवत की रीति से ब्रह्मा,प्रजापति,कश्यप,हिरण्यकशिपु चौथी पीढ़ी में होता है। इक्कीस पीढ़ी प्रह्लाद की हुई भी नहीं पुन: इक्कीस पुरूषे सद्गति को गये कह देना कितना प्रमाद है। और फिर वे ही हिरण्याक्ष,हिरणकशिपु,रावण,कुम्भकरण, पुन: शिशुपाल, दन्तवक्त्र उत्पन्न हुए तो नृसिंह का वर कहां उड़ गया? ऐसी प्रमाद की बात प्रमादी करते,सुनते और मानते हैं विद्वान नहीं।
पूतना और अक्रूर जी के विषय में देखो। अक्रूर जी कंस के भेजने से वायु के वेग के समान दौंडने वाले घोड़ो के रथ पर बैठकर सूर्योदय से चले और चार मील गोकु ल में सूर्यास्त पहुंचे। शायद घोड़े भागवत बनाने वाले की प्ररिक्रमा करते रहे होंगे? वा मार्ग भूल कर भागवत वाले के घर में घोड़े हाँकने वाले और अक्रूर जी आकर सो गये होंगे? पूतना शरीर छ:कोश चौड़ा और बहुत सा लम्बा लिखा है। मथुरा और गोकूल के बीच में उस को मारकर श्रीकृष्ण जी ने डाल दिया। जो ऐसा होता तो मथूरा और गोकूल दोनों दबकर इस पोप जी का घर भी दब गया होता। और अजामेल की कथा ऊटपटांग लिखी है- उसने नारद के कहने से अपने लडक़े का नाम नारायण रखा। मरते समय अपने पुत्र को पुकारा। बीच में नारायण कूद पड़े। क्या नारायण उस के अन्त:करण के भाव को नहीं जानते थे? कि वह अपने पुत्र को पुकारता है मुझ को नहीं। जो ऐसा ही नाम महात्मय है तो आज कल भी नारायण के स्मरण करने वालों के दु:ख छुड़ाने को क्यों नहीं आते। यदि वह बात सच्ची हो तो कैदी लोग नारायण नारायण करके क्यों नहीं छूट जातें?
ऐसा ही ज्योतिष शास्त्र से विरूद्ध सुमेरू पर्वत का परिणाम लिखा है। और प्रियव्रत राजा के रथ के च्रक की लीक से समुद्र हुए। अञ्चास कोटि योजन पृथिवी है। इत्यादि मिथ्या बातों का गपोड़ा भागवत में लिखा है जिस का कुछ पारावार नहीं।
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