धर्म

स्वामी राजदास : मनुष्यता

हम भले ही पशु-पक्षी से उन्नत हों लेकिन मानसिक स्तर पर हर मनुष्य समान नहीं है। कुछ मनुष्य दुनियावी कर्म में परमपुरुष को नहीं देख पाते हैं। जब एकांत में साधना-भजन करते हैं, तब परमपुरुष को देखते हैं। कुछ मनुष्य दुनियावी और आध्यात्मिक, किसी भी काम में परमपुरुष को नहीं देखते हैं। वे सोचते हैं कि परमपुरुष है तो मेरे सामने आए! कुछ मनुष्य जड़ जगत को ही सब कुछ मान लेते हैं। इसलिए इंसान में स्तर विन्यास है।

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प्रारंभिक स्तर पर हर जीव पशु के समान है। सुशिक्षा और सत्संग से उनमें आध्यात्मिक बोध जागता है। जिसको सुशिक्षा या सत्संग नहीं मिलता, वह पशु समान रह जाता है। जब मनुष्य में आध्यात्मिक भूख आ जाती है, तब वह महसूस करते हैं कि उन्हें भी कुछ करना चाहिए। परमात्मा की कृपा तो मुझ पर अवश्य ही है और इसलिए मनुष्य का शरीर मिला है तो मुझे भी तो कुछ करना है। मनुष्य जब यह महसूस करते हैं तब वे पशुओं के समान नहीं रहते। उन्हें हम वीर कहते हैं। वीर अर्थात हिम्मत के साथ जो मनुष्य दुनियावी तथा मानसिक बाधाओं के खिलाफ लड़कर आगे बढ़ते हैं। जिनमें इस तरह की लड़ाई करने की हिम्मत है वे ही सच्चे वीर हैं।

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आध्यात्मिक राह वीरों की राह है, कापुरुषों की नहीं। यह मनुष्य का दूसरा स्तर है। अंततः यह जो वीरभाव है कि मैं हिम्मत के साथ संग्राम कर, बाधाओं के खिलाफ लड़ाई लड़कर आगे बढ़ूंगा और किसी भी तरह की बाधा से नहीं डरूंगा, जिसके मन में स्थायी रूप से यह बैठ जाता है, वह मनुष्य के तन में देवता बन जाता है। प्रारंभिक स्तर के पशु भाव में मनुष्य में तरह-तरह के दोष रहते हैं, मगर मनुष्य उन दोषों को सुधारने का प्रयास करते हैं। यह जो प्रयत्न है, यही उनकी बहादुरी है, यही उनकी श्रेष्ठता है। वे पशु से श्रेष्ठ हैं। पशु अच्छा बनने की कोशिश नहीं करते हैं, मगर मनुष्य करते हैं।

यद्यपि इनका चाल-चलन, रहन-सहन ठीक नहीं, मगर ये अच्छा बनने के लिए प्रयासशील हैं। मैं इसी को पश्वाचार कहता हूं। यहां परमात्मा विद्या तथा बुद्धि के अनुसार विचार नहीं करते हैं। वे तराजू में तौलते हैं कि किन में कितनी मुहब्बत है। वह जो पश्वाचारी है, प्रथम स्तर के साधक, क्या वे परमपुरुष को प्यारे नहीं हैं/ अवश्य प्यारे हैं क्योंकि वे भी तो परमपुरुष की संतान हैं, परमपुरुष की ही सृष्टि हैं। शास्त्र में कहा गया है कि यह जो पश्वाचारी हैं उनके लिए परमपुरुष पशुपति हैं। हे परमपुरुष, मै पशु के समान हूं, मगर मैं तुमसे दूर नहीं हूं। मैं पशु हूं तो तुम पशुपति हो। मनुष्य जब धीरे-धीरे साधना करते-करते और परमपुरुष के लिए मुहब्बत बढ़ाते-बढ़ाते आगे बढ़ जाते हैं तब उनमें हिम्मत जग जाती है, लड़ने की शक्ति आ जाती है।
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