संतों की हर बात निराली होती है। एक बार की बात है। संत सफियान अपने अजीज मित्र संत फजील से मिलने गए। कई दिनों बाद हुई दोनों संतों की आत्मीय मुलाकात में कब दिन खत्म हुआ और कब रात सामने आकर खड़ी हो गई, पता ही नहीं चला।
अध्यात्म चर्चा करते-करते पूरी रात बीत गई। सुबह सूरज की लाली फैली तो सफियान चलने के लिए उठे और संतुष्टि से पूर्ण स्वर में बोले- आज की रात मेरी सब रातों में सबसे अच्छी रही और आज की महफिल भी यादगार रही। यह सुनकर संत फजील गंभीरतापूर्वक कहने लगे- मेरी आज की रात सबसे बुरी रही और इस महफिल को तो यादों के पिटारे में बिल्कुल भी नहीं रखा जा सकता।
मुरलीधर शर्मा’तालिब’ द्वारा लिखित किताब ‘हासिल—ए—सहरा नवर्दी’ खरीदने के लिए यहां क्लिक करे।
सफियान हैरान रह गए और हैरत से पूछ बैठे- यह कैसे, जरा खुलकर बताइए। फजील समझाते हुए बोले- मेरे भाई, तमाम रात तुम इस फिक्र में रहे कि कोई ऐसी बात करो, जो मुझे पसंद आए और वह मेरे लिए यादगार लम्हा बन जाए। दूसरी ओर, मैं इस फिक्र में था कि तुम मेरे मेहमान बनकर आए हो तो मेरे मुंह से कोई अनहोनी बात ना निकल जाए। मेरी जुबान पर भी काबू रहे और मैं आपकी पसंदीदा बातें ही करूं।
हम दोनों ही एक दूसरे की पसंदगी की फिक्र में खुदा से लापरवाह रहे। उसको एक पल भी याद ना किया। इससे अच्छा तो यही रहता कि हम एकांत में रहते। तब कम से कम अपने खुदा को याद तो करते। मुझे ऐसा एकांत पसंद है जहां कोई मेरे और ऊपर वाले के बीच में खलल न डाले और जहां मैं किसी की झूठी प्रशंसा में अपना समय व्यतीत न करूं। मैं यह भी नहीं चाहता कि कोई मुझे अपनी प्रशंसा से खुदाई दर्जा दे। इसलिए कहता हूं मेरे भाई, हम संतों के लिए एकांत ही सबसे अच्छा है जहां हम अपने खुदा से सीधे संपर्क में रह सकते हैं।