धर्म

ओशो : ब्राह्मण का अर्थ

स्वाभाविक है। जो असली ब्राह्मण थे, वे तो बुद्ध के साथ हो लिये। असली ब्राह्मण को तो बुद्ध में ब्रह्म के दर्शन हो गए। ब्रह्मण वही,जिसको ब्रह्म को देखने की कला आती हो। ब्राह्मण वही, जो ब्रह्ममय हो। वे बुद्ध को कैसे चूकते हैं? वे वस्तुत: ब्राह्मण थे, जाति और कुल से ही नहीं, अस्तित्वगत ब्रह्मण थे।

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जैसा कि उद्दालक के अपने बेटे श्वेतकेतु से कहा है। जब श्वेतकेतु लौटा गुरू के आश्रम से, तो बड़ा अकड़ा हुआ लौटा। अकड़ा हुआ लौटा, क्योंकि सब शास्त्रों में पारंगत होकर लौटता था। स्वाभाविक थी अकड़। जवान की अकड़। जैसे विश्वविद्यालय से कोई लौटता है। सोचता है:सब जान लिया है।
उद्दालक ने उसे देखा खिडक़ी से, बगीचे के अन्दर आते, उसकी अकड़ देखी उद्दालक उदास हो गए। क्योंकि अकड़ ब्राह्मण को शोभा नहीं देती।
आया बेटा। उद्दालक ने पूछा: तू क्या-क्या सीखकर आया है? तो बेटे ने सब शास्त्र गिनाए-कि वेद, उपनिषद, व्याकरण,भाषा, काव्य-सब, जो भी था। दर्शन,धर्म ,ज्योतिष भूगोल इतिहास पूराण-जो भी उन दिनों के विषय होंगे, उस उसने गिना दिए। कि सब में पांरगत होकर लौटा हूं, सब में प्रथम कोटि के अंक पाकर लौटा हूं। ये रहे मेरे सर्टिफिकेट।
लेकिन बाप ने सब सुना, जैसे उसे इसमें कुछ रस नहीं है। उसने कहा: मैं तुमझे पूछता हूं कि ब्राह्मण होकर लौटा कि नहीं?
श्वेतकेतु ने कहा:ब्राह्मण तो मैं हूं ही। आपका बेटा हूं।
तो बाप ने कहा कि नहीं, हमारे परिवार में जन्म से हम ब्राह्मण को स्वीकार नहीं करते। तेरे-बाप दादा, मेरे बाप -दादे, सदा से ब्राह्मणत्व को अनुभव से सिद्ध करते रहे हैं। हम पैदा होने से ब्रह्मण अपने को स्वीकार नहीं करते। हमारे परिवार में जन्मना हम ब्राह्मण को नहीं मानते। तू वापस जा। ब्राह्मण होकर लौट।

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बेटे ने पूछा: कमी क्या दिखायी पड़ती है। बाप ने कहा तेरी अकड़, तेरा अंहकार। साफ है तेरे अंहकार से कि तू अपने को बिना जाने आ गया है। तूने और सब जान लिया, लेकिन अपने को नहीं जाना है, आत्मज्ञान नहीं हुआ। तू जा ब्राह्मण होकर लौट।
यह ब्राह्मण की परिभाषा देखते हैं। यह ब्राह्मण का अर्थ हुआ: ब्रह्म को जानो। भीतर छिपे ब्रह्म को जानो ,ताकि बाहर छिपा ब्रह्म भी प्रगट हो जाए, तो ब्रह्मण।
तो जो असली में ब्राह्मण थे- जन्म से नहीं, अनुभव से, ज्ञान से, बोध से,-वे तो बुद्ध के पास आए, वे तो बुद्ध के प्यारे हो गए। बुद्ध के सारे बड़े शिष्य ब्राह्मण थे। उन्होंने यह फिकर नहीं की कि बुद्ध क्षत्रिय है और क्षत्रिय के सामने ब्राह्मण कैसे झूके।
ब्राह्मण तो वही हैं, जो झूकने की कला जानता हैं। वह क्या फिकर करता हैं, कौन क्षत्रिय और कौन शूद्र जहां ब्रह्म अवतरित हुआ है, जहंा ब्रह्म का फूल खिला है, जहां वह सहस्त्रार कमल खिला है, सहस्त्रदल कमल, और जहां सुगंध व्याप्त हो गयी हैं- वहां झूकेगा।
जो असली ब्राह्मण थे, वे तो झूक गए बुद्ध के पास आकर। वे तो बुद्ध के ध्वज-धर बन गए। लेकिन जो नकली ब्राह्मण थे…।
और नकली स्वभावत: ज्यादा हैं। सौं में एकाध असली, निन्यानबे नकली। जो सिर्फ किसी घर में पैदा होने के कारण, नदी-नाव-संयोग के कारण अपने को ब्राह्मण समझते थे। समझते थे कि तेरा बाप ब्राह्मण था, इसलिए मैं ब्राह्मण हूं।
इतना आसान है ब्राह्मण होना। कि बाप ब्रह्मण था, तो तुम ब्राह्मण हो गए। तुम्हारे बाप डाक्टर हों, इससे तुम डाक्टर नहीं हो जाते। तो ब्रह्मण कैसे हो जाओगे? यह तो और गहरी बात हैं। तुम्हारे बाप इंजीनियर थे, इसलिए तुम इंनजिनियर नहीं हो जाते। तुम्हारे बाप की जानकारी तक तुम नहीं पहुंचती, तो बाप का ज्ञान तो कैसे पहूंचेगा। बाप की जानकारी है कि बड़े डाक्टर थे। तो तुम डाक्टर बाप के घर पैदा हुए, तो तुम अपने को डाक्टर थोड़े ही लिखने लगते हो। जैसा यहां हिन्दुस्तान में चलता हैं कि डाक्टर की पत्नी डाक्टरनी कहलाती है। यह बड़े मजे की बात हैं।
तो तुम डाक्टर के बेटे हो, तो तुम अपने को डाक्टर तो नहीं लिखने लगते। तुम जानते हो कि डाक्टर मैं कैसे हो सकता हूं। बाप की जानकारी थी। जानकारी मुझे अर्जित करनी पड़ेगी।

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