जिस बात से तुम सत्याग्राही होना चाहते हो उसी बात से असत्याग्राही भी ठहरते हो क्योंकि जब सब मनुष्य भ्रान्तिरहित नहीं हो सकते तो तुम भी मनुष्य होने से भ्रान्तिसहित हो। जब भ्रान्तिसहित के वचन सर्वांश में प्रामाणिक नहीं होते तो तुम्हारे वचन का भी विश्वास नहीं होगा। फिर तुम्हारे वचन पर भी सर्वथा विश्वास न करना चाहिए। जब ऐसा है तो विषयुक्त अन्न के समान त्याग के योग्य हैं फिर तुम्हारे व्याख्यान पुस्तक बनाये का प्रमाण किसी को भी न करना चाहिये। चले तो चौबे जी छब्बे जी बनने को, गांठ के दो खोकर दुबे जी बन गये। कुछ तुम सर्वज्ञ नहीं जैसे कि अन्य मनुष्य सर्वज्ञ नहीं हैं। कदाचित भ्रम से असत्य को ग्रहण कर सत्य को छोड़ भी देते होगे। इसलिये सर्वज्ञ परमात्मा के वचन का सहाय हम अल्पज्ञों को अवश्य होना चाहिए।
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