मैं भी रोज यही करता हूं चेष्टा करता हूं कि तुम्हारी पुरानी धारणा टूट जाए। और ऐसा नहीं है कि तुम्हारी पुराणी धारणा गलत ही होनी चाहिए। धारणा गलत है। यह हो सकता है, ईश्वर है। लेकिन ईश्वर को मानने की वजह से तुम नहीं देखा पा रहे हो। ईश्वर के मानने को छीन लेना है, ताकि जो हैं, वह प्रगट हो जाए।
फिर दोहरा दूं, कमजोर आदमी मानता है। कायर मानते हैं। जिनमें थोड़ा साहस है, हिम्मत है, वे जानने की यात्रा पर चलते हैं।
जानने की यात्रा पर बड़े साहस की जरूरत है। सबसे बड़ा साहस तो यही है कि अपनी सारी मान्यताओ को छोड़ देना है। मान्यताओं को छोड़ते ही तुम्हें लगेगा कि तुम अज्ञानी हो गए। क्योंकि तुम्हारी मान्यताओ के कारण तुम ज्ञानी प्रतीत होते थे। एकदम नग्र हो जाओगे,अज्ञानी हो जाओगे। सब हाथ से छूट जायेगा, सब संपदा तुम्हारे तथाकथित ज्ञान की। इसलिए हिम्मत चाहिये।
धन को छोडऩे के लिए इतनी हिम्मत की जरूरत नहीं है,क्योंकि धन बाहर हैं। ज्ञान छोडऩे के लिए सबसे बड़े हिम्मत की जरूरत है, क्योंकि ज्ञान भीतर बैठ गया है। धन तो ऐसा है, जैसे वस्त्र किसी ने पहने हैं। फेंक दिए। नग्र हो गया। ज्ञान तो ऐसे हैं, जैसे हड्डी-मांस-मज्जा-चमड़ी,उखाड़ो,अलग करो, बड़ी पीड़ा होती है।
इसलिए लोग धन को छोडक़र जंगल चले जाते हैं,लेकिन ज्ञान को साथ ले जाते हैं। हिंदू जंगल में बैठकर भी हिंदू रहता हैं। जैन जंगल में बैठकर भी जैन रहता हैं। मुस्लमान जंगल में बैठकर भी मुस्लमान रहता हैं। क्या मतलब हुआ? संसकार तो साथ ही ले आए?
कहते हो: समाज छोड़ दिया। क्या खाक छोड़ दिया। जिस समाज ने तुम्हें ये संसकार दिए थे, वे तो तुम साथ ही ले आए। यही तो असली समाज है, जो तुम्हारे भीतर बैठा है। समाज बाहर नहीं हैं। समाज बड़ा होशियार है और कुशल हैं। उसने भीतर बैठकर तुम्हारे अंतस्तल में जगह बना ली। अब तुम कहीं भी भागो, वह तुम्हारे साथ जाएगा। जब तक तुम जागोगे नहीं,समाज तुम्हारा पीछा करेगा।
बुद्ध ने कहा-जागो। जागकर जिसका दर्शन होता है, उसको ही उन्होंने धर्म कहा। वह धर्म शाश्वत हैं, सनातम है। एस धम्मो संनतनो।
धर्म तुम्हारा स्वभाव है। अस्तित्व का स्वभाव:तुम्हारा स्वभाव, सर्व का स्वभाव। धर्म ही तुम्हारे भीतर श्वास ले रहा है। और धर्म ही वृक्षों में हरा होकर पत्ते बना है। और धर्म ही छलांग लगाता है हरिण में। और धर्म ही मोर बनकर नाचता है। और धर्म ही बादल बनकर घिरता हैं । और धर्म ही सूरज बनकर चमकता हैं। और धर्म ही चांद-तारों में। और धर्म ही सागरों में। और धर्म ही सब तरफ फैला हैं।
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