धर्म

स्वामी राजदास : प्रश्न

एक बार एक झेन गुरु ने अपने शिष्यों को प्रश्नों के लिए आमंत्रित किया। एक शिष्य ने पूछा,‘जो लोग अपनी शिक्षा के लिए परिश्रम करते हैं, वे भविष्य में मिलने वाले कौन-कौन से पुरस्कारों की आशा कर सकते हैं?’ गुरु ने उत्तर दिया, ‘वही प्रश्न पूछो जो स्वयं के केंद्र के निकट हो।’दूसरा शिष्य जानना चाहता था, ‘मैं अपनी पहले की मूढ़ताओं को कैसे रोकूं, जो मुझे दोषी
सिद्ध करती हैं?’ गुरु ने फिर वही बात दोहरा दी, ‘वही प्रश्न पूछो जो स्वयं के केंद्र के निकट हो।’ तीसरे शिष्य ने पूछा, ‘गुरु जी हम नहीं समझते कि स्व-केंद्र के निकट का प्रश्न पूछने का क्या मतलब होता है?’‘दूर देखने के पहले अपने निकट देखो। वर्तमान क्षण के प्रति सचेत रहो, क्योंकि वह अपने में भविष्य और अतीत के उत्तर लिए रहता है। अभी तुम्हारे मन में कौन सा विचार आया? इस तरह के प्रश्न पूछकर स्व-केंद्र के निकट आओ। निकट के प्रश्न ही दूर के उत्तरों तक ले जाते हैं।’
यही है जीवन के प्रति योग का दृष्टिकोण। पिछला जन्म, आने वाला जन्म, स्वर्ग-नर्क, परमात्मा और इस तरह की बातों की योग फिकर नहीं करता। योग का संबंध स्व-केंद्र के निकट के प्रश्नों से है। जितने निकट का प्रश्न होता है, उतनी ही अधिक संभावना उसे सुलझाने की होती है। अगर व्यक्ति अपने निकट से निकट का प्रश्न पूछ सके, तो पूरी संभावना है कि पूछने मात्र से ही वह सुलझ जाए।

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इसलिए अगर तुम पतंजलि से परमात्मा के संबंध में पूछो, तो वे उत्तर न देंगे। वस्तुतः तो वे तुम्हें मूढ़ ही समझेंगे। योग सारे तत्वमीमांसकों, सिद्धांतवादियों को मूढ़ मानता है। ये लोग उन समस्याओं पर अपना समय नष्ट कर रहे हैं जिन्हें सुलझाया नहीं जा सकता, क्योंकि वे बहुत दूर की हैं, व्यक्ति की पहुंच के बाहर की हैं। अच्छा हो वहीं से आरंभ करो जहां की तुम हो। तुम वहीं से आरंभ कर सकते हो जहां तुम हो। यात्रा वहीं से आरंभ हो सकती है जहां तुम हो। दूर के बौद्धिक, तात्विक प्रश्न मत
पूछो, भीतर के प्रश्न पूछो।

यह पहली बात है योग के विषय में समझ लेने की। योग एक विज्ञान
है। योग एकदम यथार्थ और अनुभव पर आधारित है। यह विज्ञान की प्रत्येक कसौटी पर खरा उतरता है। असल में हम जिसे विज्ञान कहते हैं वह कुछ और बात है, क्योंकि विज्ञान केंद्रित होता है विषय-वस्तुओं पर। अगर व्यक्ति स्वयं को ही नहीं जानता, तो अन्य सभी बातें जिन्हें वह जानता है, भ्रांतिपूर्ण ही होंगी, क्योंकि आधार ही नहीं है। अगर भीतर ज्योति नहीं हो, अगर भीतर प्रकाश नहीं हो, तो तुम गलत भूमि पर खड़े हो, तो जो भी प्रकाश तुम बाहर लिए खड़े हो, वह तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकेगा। और अगर भीतर प्रकाश हो, तो फिर कहीं कोई भय नहीं है।

तात्विक बातें किसी तरह की मदद नहीं करती हैं, वे और उलझा देती हैं। तत्वमीमांसा, दर्शन, सभी रूखे-सूखे विचार व्यक्ति को उलझा देते हैं। वे कहीं नहीं ले जाते। वे मन को उलझन में डाल देते हैं। दर्शनशास्त्र का संबंध मन से है। योग का संबंध चेतना से है। मन वह है जिसके प्रति जागरूक और सचेत हुआ जा सकता है। सोचने-विचारने को देखा जा सकता है। विचारों को आते-जाते देखा जा सकता है, भावों को आते-जाते देखा जा सकता है, सपनों को मन के क्षितिज पर बादलों की तरह बहते हुए देखा जा सकता है। नदी के प्रवाह की भांति वे बहते जाते हैं; यह एक सतत प्रवाह है। और वह जो कि यह सब देख सकता है, वही चैतन्य है। योग का पूरा प्रयास उसे पा लेने का है, जिसे विषय-वस्तु नहीं बनाया जा सकता है, जो कि हमेशा देखने वाला है। उसे देखना संभव नहीं है, क्योंकि वही देखने वाला है।
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