धर्म

ओशो : उपनिषद शून्य संवाद

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कबीर का बेटा था कमाल। कबीर ने उसे नाम ही कमाल दिया, इसलिए की कबीर से भी एक कदम आगे छलांग ली उसने… कबीर का ही बेटा था आगे जाना ही चाहिए।
वह बेटा ही क्या जो बाप को पीछे न छोड़े हर बाप की यही आकांक्षा होनी चाहिए की मेरा बेटा मुझे पीछे छोड़ दे। हर गुरु की यही आकांक्षा होनी चाहिए की मेरा शिष्य मुझे पीछे छोड़ दे । यही उस की सफलता है, यही उसका सौभाग्य है। कबीर के पास लोग धन ले आते, चढ़ाने के लिए सोना ले आते, कबीर कहते नहीं भाई! यह सब तो मिट्टी है इस मिट्टी का क्या करेंगे ले जाओ। कमाल कबीर के झोंपड़े के बाहर ही बैठा रहता वह कहता, भैया मिट्टी लाए और मिट्टी फिर ले जा रहे हो, अरे रख जाओ मिट्टी ही है ।
जब मिट्टी ही है तो कहाँ ले जा रहे हो, इक तो लाने की भूल की अब कम से कम दूसरी भूल तो न कर, रख दे.. रख दे। कबीर को लोगों ने शिकायत की, कि आप ऐसे महात्यागी और ये लड़का तो शैतान है। आप तो भीतर से कह देते हो लोगों से, यह धन मिट्टी है,ले जा भाई! हम क्या करेंगे.. हम तो फकीर आदमी हैं, और यह लोगों से कहता है की अरे मिट्टी है, कहाँ ले जा रहे हो, एक तो यहाँ तक ढोई ..यह कष्ट सहा, अभी भी अज्ञान में पड़े हो। अरे, छोड़ दे.. रख दे.. यहीं रख दे.. रखवा लेता है। कबीर ने कहा, यह बात तो ठीक नहीं, कमाल को कहा की यह बात ठीक नहीं। कमाल ने कहा, आप ही कहते हो कि मिट्टी है तो फिर बात ठीक क्यों नहीं?? बेचारों ने यहाँ तक ढोया, अब उनको फिर ढोने को कह रहे हो । कुछ तो दया करो, अरे दया—ममता तो होनी ही चाहिए फकीर में.. सन्यासी में। कबीर ने कहा की मेरी—तेरी नहीं बनेगी, तू अलग ही एक झोपड़ा बना ले, तो उसने अलग ही झोपड़ा बना लिया। काशी नरेश कबीर के पास आते थे। उन्होंने पुछा, बहुत दिन से कमाल दिखाई नही पड़ता, वह तो बाहर ही बैठा रहता था। कबीर ने कहा, उसे अलग कर दिया क्योंकि वह लोगों से धन—पैसा ले लेता था। काशी नरेश ने कहा कि देखें परीक्षा करें,वे गए एक बड़ा बहुमूल्य हीरा ले कर, कमाल बैठा था अपने झोपड़े में । उन्होंने हीरा चढ़ाया। कमाल ने कहा, अरे क्या पत्थर लाए। न खा सकते है और न पी सकते है। क्या पत्थर लाए कुछ लाते काम की चीज। काशी नरेश ने सोचा यह तो बात बड़ी गजब की कह रहा है और उसको कबीर ने अलग कर दिया। उठाकर वह अपने हीरे को वापिस अपनी जेब में रखने लगे तो कमाल ने कहा, अब छोड़ दो..अरे मूर्ख! यहाँ तक ढोया पत्थर अब कहाँ ले जा रहा है
रख। तब काशी नरेश ने सोचा की यह तो आदमी होशियार है। अब इससे कुछ कह भी नहीं सकते। क्योकि इंकार ही अगर करना था कि पत्थर नही है तो पहले ही करना था। पहले तो हाँ भर ली, हाँ भाई है तो पत्थर ही, अब कैसे इंकार करें?? किस मुह से इंकार करें इसने तो खूब फंसाया। काशी नरेश ने पुछा कहाँ रख दूं। कमाल ने कहा, वही गलती, गलती पे गलती। अरे!पत्थर को कोई पूछता है कि कहाँ रख दूं । अभी भी तुम हीरा ही मान रहे हो, कहीं भी रख दो या पड़ा रहने दो जहां पड़ा है रखना क्या है??? मगर काशी नरेश भी तय कर के आया था कि परीक्षा पूरी लेगा। तो उसने बहुमूल्य हीरा छप्पर में खोंस दिया । पन्द्रह दिन बाद लौटा सोचा उसने कि इसने हीरा निकाल लिया होगा। पन्द्रह दिन बाद वापस लौटा। इधर—उधर की बात की, आया तो पता लगाने था हीरे का। पूछा कि मैं पन्द्रह दिन पहले हीरा लाया था क्या हुआ हीरे का???
कमाल ने कहा गजब करते हो कैसा हीरा??? कब लाए थे?? मैंने तो नहीं देखा। काशी नरेश ने कहा, अरे हद्द करते हो। मेरे सामने ही झूठ बोल रहे हो। मेरा वजीर भी मौजूद था। मैं उसको साथ लेकर आया हूँ गवाह है वह। कबीर ठीक ही कहते हैं कि यह आदमी गड़बड़ है। कमाल ने कहा कि अरे तुम उस पत्थर की बात तो नहीं कर रहे जो उस दिन लाए थे। पंद्रह—बीस दिन पहले लाए थे,उसी पत्थर को हीरा कह रहे हो। यह तो निर्णय हो चुका था कि पत्थर है। काशी नरेश ने कहा, हाँ निर्णय हो गया था । मैं उसको खोंस गया था, झोंपड़े में तूने निकाला होगा। कमाल ने कहा मुझे क्या पड़ी निकालने की तुम देख लो। अगर कोई और निकाल के ले गया हो तो मैं कुछ नही कर सकता । क्योंकि मैं कोई पहरेदार नहीं हूँ यहाँ तुम्हारे पत्थरों का। और अगर किसी ने न निकाला हो तो होगा झोंपड़े में। नरेश चकित हुआ देखकर हीरा वहीँ के वहीँ झोंपड़े में छुपा था। पैरों पर गिर पड़ा कमाल के और कहा मुझे क्षमा कर दो ।पर उसने कहा इसमें क्षमा करने की बात ही क्या है ??? तुम गलती ही गलती किये जा रहे हो। अरे ,पत्थर है उसको मैंने नहीं निकाला, तो इसमें खूबी की क्या बात है?? पत्थर तो बाहर बहुत पड़े हैं कोई पत्थर बीनने के लिए यहाँ बैठा हूँ??
यहाँ पैरों पर क्या पड़ रहे हो अगर तुम उसे हीरा ही मानते हो तो भैया ले जाओ और दोबारा इस तरह की चीजें यहाँ मत लाना। हिम्मत तो नहीं पड़ी काशी नरेश की ले जाने की। लेकिन यह कमाल कबीर से भी गहरी बात कह रहा है अगर तुम्हे दिखाई पड़ने लगा की सोना मिट्टी है तो फिर मिट्टी और सोने में फर्क ही कहाँ रह जाएगा । फिर समता का सवाल ही कहाँ है ??अगर सफलता और असफलता सच में ही समान हो गए तो किसको सफलता कहोगे, किसको असफलता कहोगे, किसको प्रशंसा और किसको अपमान।
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