नई दिल्ली,
मध्यप्रदेश के मंदसौर में किसानों की सभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने किसानों को न्याय दिलाने और प्रदेश में सरकार बनने की स्थिति में दस दिन के भीतर कर्ज माफ करने का वादा किया। उधर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरकार बनते ही सबसे पहले जो काम किए थे उनमें से एक काम कृषि मंत्रालय का नाम बदलकर कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय करना भी था। मोदी पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी कर दी जाएगी। दोनों नेताओं की नीयत पर शक करने की बहुत जरूरत नहीं है, लेकिन फिर भी सवाल उठता है कि देश की आर्थिक नीतियां क्या वाकई किसान को दरिद्रता के चंगुल से निकालने वाली हैं? या फिर यह नीतियां उसी दिशा में जा रही हैं, जहां 1930 के दशक में प्रेमचंद की कहानी पूस की रात का नायक हल्कू रहा करता था। हल्कू के पास कृषि संकट से निपटने का आखिर उपाय यही था कि वह खेती छोड़ दे। यहां हम उदारीकरण के बाद से किसानों के लिए देश में बन रही नीतियों की समीक्षा करने के बजाय कुछ महत्वपूर्ण पैरामीटर्स उठाकर देख लेते हैं, जिनसे पता चलेगा कि किसान आगे जा रहा है, या पीछे।
देश के जीडीपी में खेती की घटती हिस्सेदारी
जो लोग अर्थव्यवस्था की बारीकियां नहीं जानते हैं, वे भी इतना तो जानते हैं कि जिस तबके का समाज के संसाधनों पर सबसे ज्यादा हक होता है, वह सबसे ज्यादा संपन्न होता है। देश के मामले में यह कहा जा सकता है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद में जिस वर्ग की जितनी ज्यादा हिस्सेदारी होगी, वह उतना ज्यादा पैसे वाला होगा। इस लिहाज से अगर सरकारें किसान को मालदार बनाना चाहती थी, तो देश के जीडीपी में खेती की हिस्सेदारी बढ़नी चाहिए थी। लेकिन हो इसका उलटा रहा है। आजादी के समय देश के जीडीपी में खेती की हिस्सेदारी 50 फीसदी से अधिक थी जो अब घटकर 14-15 फीसदी रह गई है। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि देश की कुल दौलत में आजादी के समय किसानों की हिस्सेदारी 50 फीसदी हुआ करती थी, वही हिस्सेदारी अब घटकर 15 फीसदी रह गई है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस समय देश की कुल आबादी की 60 फीसदी आबादी किसान है। इसका मतलब हुआ की देश की 60 फीसदी किसान आबादी के पास देश की महज 15 फीसदी दौलत है, जबकि बाकी 85 फीसदी दौलत बाकी बची 40 फीसदी आबादी के पास है। यह आंकड़ा अपने आप में यह बताने के लिए पर्याप्त है कि किसान गरीबी में रहने के लिए अभिषप्त है।
85 फीसदी किसान छोटी जोत के
एक तरफ तो किसान के पास वैसे ही सबसे कम आमदनी है, दूसरी तरफ बढ़ती आबादी के कारण देश में प्रति किसान जमीन का रकबा भी घटता जा रहा है। कृषि मंत्रालय के आंकडों के अनुसार देश में 85 फीसदी किसान सीमांत किसान हैं। सीमांत किसान का मतलब ऐेसे किसान जिनकी जोत दो एकड़ से कम है। यानी देश के 22 करोड़ किसान परिवारों में से 18 करोड़ किसान दो एकड़ से कम में खेती कर रहे हैं। यह जोत इतनी कम है कि इसमें परिवार का गुजर-बसर होना मुश्किल है। ऐसे किसान के लिए खेती करने से ज्यादा मुनाफे का सौदा तो शहर में रिक्शा चलाने का है।
खेती की विकास दर 2 फीसदी पर टिकी
देश में इस बात को लेकर चिंता बनी रहती है कि हमारी विकास दर दोहरे अंकों में न सही तो कम से कम 7 फीसदी तो रहे। विकास दर के आंकड़ों में दशमलव में कमी आने से शेयर बाजार हिलने लगते हैं और अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां देश की रेटिंग ऊपर नीचे करने लगती हैं। जरा सोचिए देश की उस 65 फीसदी सबसे गरीब आबादी का ऐसे में क्या होगा, जिसकी विकास दर पिछले कई साल से 2 फीसदी से ऊपर ही नहीं गई और कई बार तो शून्य के पास पहुंच गई। देश की कुल विकास दर और खेती की विकास दर में आया यह बड़ा अंतर बताता है कि किसान की दशा सुधर रही है या बिगड़ रही है।
देश की 45 फीसदी जमीन अब भी असिंचित
मोदी सरकार ने अपने पहले पूर्ण बजट में इस बात की जोरशोर से घोषणा की थी कि पिछली सरकारों ने सिंचाई के लिए ज्यादा प्रयास नहीं किए। सरकार के मुताबिक उस समय तक देश की 55 फीसदी खेती योग्य जमीन पर ही सिंचाई की व्यवस्था थी, जबकि 45 फीसदी जमीन असिंचित थी। मोदी सरकार ने इस कमी को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना की घोषणा की लेकिन आज चार साल बाद यह स्पष्ट नहीं है कि इस दौरान कितनी नई जमीन को इस योजना के तहत सिंचित कर दिया गया है।
किसानों पर 12 लाख करोड़ का कर्ज और बढ़ती आत्महत्या
राहुल गांधी ने आज किसानों का कर्ज माफ करने की बात कही। इससे पहले उत्तर प्रदेश, पंजाब, कर्नाटक और महाराष्ट्र की सरकारें किसानों को कर्ज में अपने-अपने फॉर्मूला के हिसाब से राहत या माफी देती रही हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर यह काम यूपीए वन के बाद से नहीं हुआ है। राहुल ने आज कहा कि उनकी सरकार ने 70,000 करोड़ रुपये का कर्ज माफ किया था। लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक आरबीआई के आंकड़े देखें तो इस समय देश के किसानों पर करीब 12 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। क्या केंद्र की मौजूदा सरकार या आनेवाली सरकार इतनी बड़ी कर्ज माफी की हिम्मत जुटा पाएगी। कर्ज की इतनी बड़ी रकम बताती है कि किसान कर्ज में खेती कर रहा है। किसान पर इस सरकारी कर्ज के अलावा निजी साहूकारों का कर्ज अलग से है।
खेती के ये सारे कारक जो एक के बाद एक गिनाए गए, मिलकर किसान को बोझ से दबा देते हैं। कई किसान तो खेती के बोझ से इतने दब जाते हैं कि हैं कि प्रेमचंद के हल्कू की तरह खेती छोड़ने भर से उनकी जान नहीं छूटती। इस अजाब से बचने के लिए वे दुनिया ही छोड़ देते हैं। और इस तरह के किसानों की संख्या पिछले डेढ़ दशक में एक दो साल को छोड़कर लगातार बढ़ती ही जा रही है। क्या चुनावी साल में नेताओं के मुंह से हमें इन बुनियादी सवालों के जवाब सुनने को मिल पाएंगे।