धर्म

श्री जम्भेश्वर शब्द वाणी—51

शब्द-51 ओ३म्- सप्त पताले भुय अंतर अंतर राखिलो, म्हे अटला अटलूं। अलाह अलेख अडाल अजूनी शिंभू, पवन अधारी पिंडजलूं।
भावार्थः- इस शरीर के अन्दर ही सप्त पाताल है जिसे यौगिक भाषा में मूलाधार चक्र, जो गुदा के पास है इनसे प्रारम्भ होकर इससे ऊपर उठने पर नाभि के पास स्वाधिष्ठान चक्र है इससे आगे हृदय के पास मणिपूर चक्र, कण्ठ के पास अनाहत चक्र, भूमण्डल में विशुद्ध चक्र तथा भूमण्डल से ऊपर आज्ञाचक्र है। इन छः पाताल यानी नीचे के चक्रों को भेदन करता हुआ सातवें सहस्त्रार ब्रह्मरंध्र में प्राण स्थित हो जाते हैं तब योगी की समाधि लग जाती है। जम्भदेवजी कहते हैं कि मैनें तो अपने प्राणें को इन सात चक्रों के अन्दर ही रख लिया है। प्राणों का धर्म है भूख और प्यास लगना है। वे प्राण तो समाधिस्थ होकर सहस्त्रार ब्रह्मरन्ध्र में प्राण स्थित हो जाते हैं तब योगी की समाधि लग जाती है। जम्भदेवजी कहते हैं कि मैनें तो अपने प्राणों को इन सात चक्रों के अन्दर ही रख लिया है। प्राणों का धर्म है भूख और प्यास लगना। वे प्राण तो समाधिस्थ होकर सहस्त्रार ब्रह्मरन्ध्र से झरते हुए अमृत का पान करते हैं फिर मुझे आवश्यकता अन्न की नहीं है। इसीलिए में स्थिर होकर यहां पर बैठा हुआ हूँ। यह पृथ्वी और जल का बना हुआ शरीर अवश्यमेव जल और अन्न की मांग करेगा किन्तु प्राणों को जीत करके समाधि में स्थित हो जाने पर तो फिर शरीर से ऊपर उड़कर यह आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप जो अलाह, अलेख, अडाल, अयोनी, स्वयंभू के रूप में ही स्थित हो जाती है, यही आत्मा का शुद्ध स्वरूप है। काया भीतर माया आछै, माया भीतर दया आछै। दया भीतर छाया जिहिकै, छाया भीतर बिंब फलू। क्योंकि इस पंचभौतिक शरीर के भीतर ही माया है अर्थात् माया प्रकृति शरीर के कण-कण में समायी हुई है क्योंकि माया से ही यह शरीर निर्मित है। उसी शरीर रूपी माया के अन्दर हृदय है। वही इसी शरीर के अन्दर ही है। उसी हृदय में भी माया की छाया है क्योंकि स्वयं माया तो स्थूल शरीरस्थ है किन्तु उसकी छाया हृदयरूपी अन्तःकरण पर अवश्य ही पड़ी है। उसी माया की छाया में ढ़का हुआ वह परमपिता परमात्मा का प्रतिबिम्ब रूप आत्मा स्थित है। वही फल रूप है, उसी फल की प्राप्ति के लिए प्रथम तो ज्ञान द्वारा माया का छेदन होगा तो उसकी छाया भी निवृत हो जायेगी, फिर आत्म साक्षात्कार होगा। पूरक पूर पूर ले पोण, भूख नहीं अन जीमत कोण। यही आत्म साक्षात्कार और माया का भेदन मैनें प्राणायाम द्वारा किया है। पूरक, रेचक, कुम्भक इन्हीं विधि से प्राणों को अपने अधीन कर लिया है। अब मुझे भूख ही नहीं लगती तो फिर बताओ, बिना भूख के भी क्या अन्न खाया जाता है | अब यदि में रावण को मार दूं तो भी क्या लाभ तथा लंका को ले लूं तो भी क्या लाभ है। लक्ष्मण भ्राता बिना तो मेरा लड़ना ही व्यर्थ है। कहा हुआ जे सीता अइयो, कहा करूं गुणवंता भइयों। खल के साटै हीरा गइयो। सीता को लेकर अब में करूंगा क्या? तथा सीता हस्तगत करने पर भी मेरा भाई तो मुझे नहीं मिल सकेगा तो उस सीता से भी क्या। हे मेरे गुणवान भाई! अब में अकेला क्या करूं, मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। मैनें तो यहां लंका में आकर खली प्राप्त करने के लिए अमूल्य हीरा खो दिया। मेरे लिए लक्ष्मण बिना तो रावण को मारकर लंका तथा सीता पर अधिकार तो खली के समान ही है। कहां तो अमूल्य रत्न हीरारूपी लक्ष्मण तथा कहां यह विजयरूपी तेलविहीन खली। यह तो सौदा घाटे का हो गया है।

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