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ओशो : एक्स्ट्रोवर्ट और इन्ट्रावर्ट

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जोड़ो के लिए मैं यह कहना चाहता हूं कि ध्यान में अगर तुम दोनों साथ-साथ बढ़ते रहोगे तो, तो यह अड़चन नहीं आती। मगर ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है कि तुम पति-पत्नी हो, इसलिए ध्यान में तुम्हारी गति समान हो सके। अक्सर तो ऐसा होगा: एक आगे बढ़ जाएगा,दूसरा पीछे रह जायेगा। दूसरे पर दया करना। दूसरे पर प्रेम रखना, करूणा करना। दूसरे की जरूरत की चिंता करना। वही तो कर्तव्य है और यही तो ध्यानी का उत्तरदायित्तव हैं।
तो अब कुमुद। भोजन सम्यक् करो। ध्यान आंनद के लिए करो। बाहर भी जाओ। क्योंकि बाहर भी परमात्मा है, भीतर ही थोड़े है। पहले भीतर पहचानना पड़ता है। जब भीतर पहचान आ गई ,तो फिर बाहर जाकर जगह-जगह पहचानना पड़ता है। इतने रूपों में प्रगट है,भीतर ही क्या बैठे रहना है? भीतर एकरूप देख लिया, अब अंनत रूप देखो। भीतर की पहचान के लिए जाना पड़ता है। पहचान हो गई,अब बाहर भी जाओ। अब बाहर और भीतर दोनो जोड़ो। जो आदमी भीतर ही भीतर रहे, वह अधूरा है। और जो आदमी बाहर ही बाहर रहे वह भी अधूरा है।
कार्ल गुस्ताव जुुग ने मनौवैज्ञानिक विधि से आदमियों के दो भेद किए है- एक्स्ट्रोवर्ट और इन्ट्रावर्ट: बहिर्मुखी और अतंर्मुखी। दोनों अधूरे हैं। बहिर्मुखी बाहर ही बाहर रहता है। अंर्तमुखी भीतर ही भीतर रहता है। अंतमुखी उदास हो जाता है। और बहिर्मुखी अंशात हो जाता है। व्यक्ति दोनों का तालमेल होना चाहिए। जैसे तुम अपने घर के बाहर भीतर आते हो। जब बाहर सुंदर धूप निकली है और फुल खिले हैं तो पक्षी गीत गा रहे हैं,तु तुम भीतर बैठे क्या करते हो? बाहर आओ। धूप पर नाचो। वृक्षों से थोड़ी बात करो। फूलों से थोड़ा बोलो, बतियाओ। जब बाहर बहुत धूप धनी हो जाए तो भीतर आओ,विश्राम करो। भीतर विश्राम ,बाहर श्रम। भीतर भी डुबकी और बाहर भी डुबकी मारो। परमात्मा को पूरा ही पूरा पियो। अधूरा-अधूरा क्या? इसलिए एक कदम और उठाओ। अब नदी फिर नदी हो जाए,पहाड़ फिर पहाड़ हो जाये।
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