एक बार राजा जनक की सभा में मुनि अष्टावक्र जी पधारे। पंडितों से ज्ञानी सन्त महात्माओं से सभा भरी हुई थी। ज्योंहि सबकी दृष्टि अष्टाव्रक के टेढ़े -मेढ़े शरीर पर पड़ी तो सब हँसने लगे। उस सबको देखकर अष्टाव्रक भी हँसने लगे। राजा जनक ने उच्चासन पर अष्टसव्रक को बैठाया और विन्रमता से पूछा, महाराज हम सबको तो आपके विचित्र अंगो को देखकर हँसी आई, परन्तु आप किस बात पर हँस रहे हैं?
अष्टाव्रक ने कहा, राजन् मैं आपकी सभी में ये सोचकर आया था कि ज्ञानीजनों से मुलाकात होगी, लेकिन यहाँ तो सब मुर्ख और चमार बैठे हुए हैं। सभी विस्मित होकर अष्टाव्रक की ओर देखने लगे, तो वह बोले, आप सब मेरी आकृति को देखकर हंस रहे हो, जो मिट्टी से बनी है, चाम से बनी है।
चाम-चमड़े को देखना ज्ञानियों का काम नहीं चमारों का कार्य है। ज्ञानी कृतिआत्मा को देखते हैं, मेरे ज्ञान को देखो, आप ज्ञानी है। दृष्टि जब भगवन्मय बन जाती है तो कण-कण में उसकी व्यापकता दिखाई देती है।