तीन आदमी जा रहे हैं और एक भीख मांगने वाला सामने खड़ा हो जाए और उन तीन में से एक आदमी पैसे निकाल कर भिखमंगे को दे दे और बाकी दो न देना चाहते हों पैसे, तो उसके देने से चोट लगती है, क्योंकि अब न देना एक भिखमंगे के सामने अपमानित होना है। अगर इस मित्र ने भी न दिया होता पैसा, तो वे तीनों अपनी अकड़ से जा सकते थे; क्योंकि तीनों ने नहीं दिया था, तीनों बराबर थे।
एक आदमी चोरी करता है और अगर उसे पता चल जाए कि यहां जितने लोग बैठे हैं सब चोर हैं, उसके अपराध का भाव विलीन हो जाता है। क्योंकि कोई डर की बात नहीं, सभी चोरी कर रहे हैं। चोरी आम है। इसीलिए तो आप अखबार उठा कर सबसे पहले देखते हैं कि कहां चोरी हुई, कहां हत्या हुई, कहां क्या हुआ। अपने को विश्वास दिलाने के लिए कि कोई फिक्र नहीं, सब जगह यही हो रहा है। कोई हम ही कर रहे हैं, ऐसा नहीं है, हर आदमी यही कर रहा है। यह तो यूनिवर्सल फिनामिना है। यह तो हर आदमी कर रहा है। इसमें कोई घबड़ाहट की बात नहीं है। एट ईज़, आदमी को भीतर एक विश्राम मालूम पड़ता है कि सब ठीक है। हम सामान्य आदमी हैं, जैसे सब लोग हैं।
लेकिन अगर एक आदमी के बाबत पता चलता है कि वह ईमानदार है, सच्चा है, तो आप एकदम से विश्वास नहीं करते। आप हजार चेष्टा करते हैं खोजने की कि वह सच्चा सच में है? ईमानदार सच में
है? आप सब उपाय करते हैं पता लगाने का कि वह है भी ईमानदार? और जब तक आप पता नहीं लगा लेते कि अरे सब बेईमानी है वहां भी, सब ऊपर का धोखा था, तब तक एक बेचैनी अनुभव होती है मन में कि यह कैसे हो सकता है कि एक आदमी ईमानदार है और मैं बेईमान हूं! उसकी ईमानदारी मेरी बेईमानी की तुलना में ऊंची मालूम होने लगती है, मैं नीचा मालूम होने लगता हूं। एक इनफीरिआरिटी, एक हीनता पकड़ लेती है। तो चेष्टा चलती है.. .हम किसी अच्छे आदमी की अच्छाई को एकदम से मानने को राजी नहीं होते। मजबूरी में राजी होते हैं,जब कोई उपाय ही न रहे तब हम मानने को राजी होते हैं।
लेकिन एक आदमी के बाबत हमें कोई कहे कि वह बेईमान है, चोर है। हम एकदम मान लेते हैं, हम बिलकुल खोजबीन नहीं करते। हम बिलकुल खोजबीन नहीं करते कि हम.. .एक आदमी ने हमें कहा कि वह चोर है, बेईमान है.. .हम खोजबीन करें, फिर मानें। नहीं, कोई खोजबीन नहीं करता। बल्कि अगर उसने कहा था कि वह पचास परसेंट चोर है, तो जब हम दूसरे को खबर देते हैं तो वह खबर सौ परसेंट हो जाती है। हमारे दिल को राहत मिलती है इस बात से कि वह आदमी भी बेईमान है। वह जो हमारे भीतर हीनता का भाव था, वह मिट जाता है। और हम उस आदमी की पचास परसेंट चोरी को सौ परसेंट क्यों बताने लगते हैं? क्योंकि हम जितना बड़ा पापी अपने आस-पास के लोगों को बता सकें, उतना ही हमारा पाप कम और हम ऊपर उठते जाते हैं।
सुना होगा आपने, बहुत पुरानी कहानी है, कि एक सम्राट ने एक लकीर खींच दी और अपने दरबारियों से कहा कि इसे बिना छुए हुए छोटा कर दो। वे मुश्किल में पड़ गए। लेकिन जो दरबार का कवि था हंसी-मजाक करने वाला, जो दरबार का जोकर था, उसने एक बड़ी लकीर उसके नीचे खींच दी। उसने उस लकीर को छुआ भी नहीं और वह छोटी हो गई, क्योंकि बड़ी लकीर नीचे खींच दी गई।
जब हम आस-पास के पाप की खबर सुनते हैं, तो हम उस पाप को बड़ा कर देते हैं एकदम। वह हमारे पाप की लकीर को तो छोटा करना मुश्किल है, लेकिन दूसरे की पाप की लकीरों को बड़ा किया जा सकता है। और तत्काल हमारी लकीर छोटी हो जाती है।
इसीलिए निंदा में इतना रस है। न संगीत में इतना रस है, न अध्यात्म में इतना रस है, निंदा में जो रस है वह अदभुत है। वह रस ही अदभुत है। न वीणा इतना संगीत पैदा कर सकती है, न संत ऐसी वाणी दे सकते हैं, जैसा निंदा में बुराई मे आनंद उपलब्ध होता है।