सत्यभामा कृष्ण की दूसरी पत्नी थी। वो एक बहुत ही घमंडी स्त्री थी। उसका ये मानना था कि वो सबसे सुंदर और सबसे अमीर स्त्री है क्योंकि उसके पिता एक बहुत ही धनवान व्यक्ति थे। तो, सत्यभामा जितने और जो रत्न और आभूषण और संपत्ति चाहती थी वो सब उसके पास थे। स्वाभाविक रूप से घमंड उसकी एक बड़ी समस्या थी।
एक बार भगवान श्रीकृष्ण के जन्मदिवस के अवसर पर सत्यभामा ने सोचा कि वो सब को दिखायेगी कि वो श्रीकृष्ण को कितना प्यार करती है। तो उसने तय किया कि वो श्रीकृष्ण के वजन जितना सोना शहर के लोगों में बाँटेगी। इसे तुलाभार कहते हैं। ये मंदिरों में होता है। ये प्राचीन परंपरा हमारी संस्कृति का एक हिस्सा है।
सत्यभामा ने तुलाभार की व्यवस्था की। लोग बहुत प्रभावित हुए पर श्रीकृष्ण पर इन बातों का कोई असर नहीं हुआ। वे जाकर तराजू के एक पलड़े पर बैठ गये। सत्यभामा जानती थी कि उनका वजन लगभग कितना है, और उसने उतना सोना तैयार ही रखा था। पर जब उसने सब सोना दूसरे पलड़े पर रखा, तो काँटा जरा भी नहीं हिला, श्रीकृष्ण का पलड़ा थोड़ा भी ऊपर नहीं हुआ।
ऐसा ही कुछ तब भी हुआ था जब कृष्ण एक शिशु थे। एक राक्षस आकर उन्हें ले जाने लगा। तब श्रीकृष्ण ने अपना वजन इतना बढ़ा लिया कि राक्षस वहीं गिर पड़ा, और श्रीकृष्ण ने उसके ऊपर बैठ कर उसे कुचल कर मार डाला। क्रिया योग में एक ऐसा तरीका है जिससे कोई योगी अपना वजन बढ़ा या घटा सकता है। ऐसी बहुत सी कहानियाँ हैं कि ऐसे योगी भी थे जो पहाड़ की तरह भारी हो जाते थे।
तो इस बार भी श्रीकृष्ण अपना वजन बढ़ा कर तराजू में बैठ गये। सत्यभामा ने उतना सोना दूसरे पलड़े पर रख दिया था, जितना उसके हिसाब से श्रीकृष्ण के वजन के बराबर था, पर कुछ हुआ ही नहीं। तब तक शहर के सभी लोग ये घटना देखने के लिये आ गये थे। तब उसने अपने नौकरों से वो सभी गहने मंगवाये जो उसके पास थे। एक के बाद एक वो गहने डालती जा रही थी, और सोच रही थी कि काम हो जायेगा पर कुछ नहीं हुआ। तब उसने वो सब कुछ भी रख दिया जो उसके पास था पर पलड़ा जरा भी नहीं हिला।
वो रोने लगी क्योंकि ये सब उसके लिये बहुत शर्मजनक था। सारा शहर देख रहा था और उसके पास पर्याप्त सोना नहीं था। वो जो हमेशा अपनी संपत्ति के बारे में इतनी घमंडी थी, उसके पास पर्याप्त सोना नहीं था, और उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वो क्या करे?
तब उसने रुक्मिणी की ओर देखा, उसने रुक्मिणी से पूछा, “अब मैं क्या करूँ? क्योंकि ये बात मेरे लिये बहुत शर्मजनक है। मैं क्या करूँ”? तब रुक्मिणी बाहर गयी और तुलसी के पौधे के तीन पत्ते उठा लायी। जैसे ही तुलसी के वे पत्ते उसने तराजू के दूसरे पलड़े पर रखे, श्रीकृष्ण का पलड़ा तुरंत ही ऊपर आ गया।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, ईश्वर को कभी भी अहंकार से नहीं तोला जा सकता। वे प्रेम और श्रद्धा से ही तोले जा सकते हैं। मंदिरों, गौशालाओं और गुरु दरबार में जाकर जो लोग पैसों से स्वयं के लिए वीआईपी ट्रीटमेंट करवाते हैं उन्हें कभी भी ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती। वे अपने धन के नशे में चूर होकर संसारिक यश तक ही सीमित रह जाते हैं। परमार्थ तक वे कभी नहीं पहुंच पाते।