एक संत के आश्रम में एक शिष्य ऐसा था जो अनपढ़ था, लेकिन अपने गुरु के प्रति पूरी श्रद्धा रखता था। गुरु का बताया हुआ हर काम पूरी ईमानदारी से करता था। उसकी एक आदत और थी, वह खाने का बहुत शौकीन था। वह गुरु का सबसे प्रिय शिष्य था। आश्रम के सभी शिष्य उसे ज्यादा महत्व नहीं देते थे, क्योंकि वे सभी शास्त्रों के जानकार थे और आश्रम में खान-पान से जुड़े सभी नियमों का पालन करते थे।
उनके गुरु एक महत्वपूर्ण ग्रंथ लिख रहे थे। जब उनका ग्रंथ अंतिम चरण में पहुंचा तो उन्हें ये आभास हो गया कि अब वे ज्यादा दिन जीवित नहीं रहेंगे और ये ग्रंथ अधूरा रह जाएगा। उन्होंने सभी शिष्यों को बुलाया और कहा कि अब मेरा समय आ गया है। मैं चाहता हूं कि मेरा ये ग्रंथ मेरा प्रिय शिष्य ही पूरा करे। ये सुनते ही सभी शिष्य हैरान हो गए। उन्होंने कहा कि गुरुदेव अब तो आपका पुत्र भी शास्त्री बन गया है। ये काम वह पूरा कर सकता है, लेकिन एक अनपढ़ व्यक्ति ग्रंथ को पूरा कैसे करेगा?
संत ने कहा कि ये बात सही है कि मेरा पुत्र भी योग्य है, लेकिन वह मुझे एक गुरु से ज्यादा पिता मानता है। गुरु के लिए जो श्रद्धा और ईमानदारी होनी चाहिए, वह मेरे पुत्र में नहीं है। जबकि मेरे प्रिय शिष्य में मेरे लिए पूरी श्रद्धा है, निष्ठा है। वह मेरी हर आज्ञा का पालन ईमानदारी से करता है। इसीलिए मुझे विश्वास है कि ये अधूरा काम वह ही पूरा कर सकता है। अगर तुम लोग चाहो तो पहले मेरे पुत्र से ये काम करवाकर देख लेना, लेकिन मुझे विश्वास है कि ये ग्रंथ वह पूरा नहीं कर पाएगा। सच में, ऐसा ही हुआ। जबकि गुरु के प्रिय शिष्य ने ग्रंथ को कुछ ही समय में पूरा कर दिखाया।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, अगर हमारे मन में किसी काम के लिए या किसी व्यक्ति के लिए पूरी श्रद्धा और ईमानदारी है तो हम काम में और रिश्तों में सफलता जरूर हासिल करते हैं। इन गुणों की वजह से रिश्ते अटूट बनते हैं। जिन लोगों में ये गुण होते हैं, वे अपने लक्ष्य तक भी पहुंचते हैं।