राजा हरीश्चंद्र के बारे में कहा जाता है कि, एक बार उन्होंने सपने में महर्षि विश्वामित्र को अपना सारा राज्य दान में देते हुए देखा। लेकिन अगले दिन जब वे सुबह जागे तो सपने को भूल गए थे। महर्षि विश्वामित्र महल में आए और राजा हरिश्चंद्र तो उनका सपना याद दिलाया। इसके बाद राजा ने खुशी-खुशी अपना राज्य उन्हें दान में दे दिया। लेकिन दान के बाद दक्षिणा की बारी आई तो वे बोले, पहले ही सब कुछ मैंने दान कर दिया अब अब दक्षिणा के लिए धन कहां से लाऊं।
बहुत विचार कने के बाद राजा हरिश्चंद्र ने खुद को बेचने का फैसला किया और काशी की ओर चल पड़े। इधर रानी तारामती और पुत्र रोहिताश को एक व्यक्ति ने खरीद लिया। उधर राजा हरिश्चंद्र को श्मशान के एक स्वामी ने खरीद लिया।
हरिश्चंद्र की पत्नी उस व्यक्ति के घर पर बर्तन मांजने और चौका-चूल्हा का काम करने लगी। वहीं कभी सिंहासन पर बैठने वाले राजा हरिश्चंद्र श्मशान का काम करने लगे।
एक दिन राजा के पुत्र रोहिताश को सांप ने डंस लिया, जिससे उसकी मौत हो गई। लेकिन तारामती के पास कफन तक के पैसे नहीं थे। तारामती किसी तरह दुखी मन से पुत्र के शव को गोद में उठाकर शमशान पहुंची। लेकिन श्मशान पहुंचते ही हरिश्चंद्र तारामती से श्मशान का कर मांगने लगे।
क्योंकि श्मशाम का कर लेना नियम था और वो अपने मालिक की आज्ञा का पालन कर रहे थे। राजा हरिश्चंद्र पत्नी से बोले कि, श्मशान का कर तो देना ही पड़ेगा। फिर हरिश्चंद्र ने पत्नी से कहा कि यदि तुम्हारे पास कर देने के लिए धन नहीं है तो अपनी साड़ी का कुछ भाग फाड़कर दे दो। उसे ही कर के रूप में रख लूंगा।
लाचार होकर जैसे ही तारामती ने अपनी साड़ी फाड़ना शुरू किया उसी समय तेज गर्जन हुआ और विश्वामित्र प्रकट हो गए। विश्वामित्र बोले- हे राजा! तुम धन्य हो। ये सब तुम्हारी परीक्षा हो रही थी, जिसमें तुमने यह सिद्ध कर दिया कि तुम श्रेष्ठ, दानवीर, सत्यवादी और धार्मिक हो।
इसके बाद पुत्र रोहिताश भी जीवित हो उठा और राजा को उसका पूजा राज्य भी लौटा दिया गया। इतना ही नहीं महर्षि विश्वामित्र ने कहा कि, संसार में जब भी धर्म, दान और सत्य की बात की जाएगी, राजा हरिश्चंद्र का नाम आदर-सम्मान के साथ सबसे पहले लिया जाएगा। धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी आज भी दानवीरों की बात होती है तो हरिशचंद्र का नाम सबसे पहले लिया जाता है।