एक सेठ ने अपना कामधंधा अपने पुत्रों को सौंप दिया। इसके बाद उन्होंने अपना जीवन सेवाकार्य में अर्पित कर दिया। उनकी धन संग्रह में जरा भी रूचि नहीं थी। उनके हाथ सदैव दान की मुद्रा में रहते थे। लोग उनकी निरासक्त प्रवृत्ति से काफी प्रभावित थे। सेठ जी अपनी इस उदारता पर तनिक भी अहंकार नहीं करते थे।
एक दिन उन्हें किसी ने आकर कहा कि राजा ने आपको बुलाया है। राजा के बुलाने पर सेठ जी तुरंत राजा के दरबार में पहुंचे। वहां राजा ने कहा—सेठ जी आपने सदा राजकोष को कर के माध्यम से बढ़ाने का काम किया है। इसलिए मंत्री की सलाह पर आज आपको सम्मानित किया जा रहा है। ये कहते हुए राजा ने 100 सोने की मुद्राएं सेठ जी को सम्मान स्वारुप सौंप दिए।
सेठ जी ने हाथ जोड़कर कहा—आपका दरबार में बुलाना ही मेरा सम्मान है। इससे बड़ा कोई सम्मान नहीं हो सकता। आपने 100 सोने की मुद्राएं सम्मान में दी है। लेकिन हे राजन! ये मुद्राएं अब मेरे किसी भी काम की नहीं है। ऐसे में ये मुद्राएं मैं राजकोष में जमा करवाने की आज्ञा चाहता हूं। ताकि इस मुद्रा से राज्य का विकास हो सके। ये कहते हुए सेठ जी मुद्राएं मंत्री को सौंप दी।
वहीं खड़े एक दरबारी ने जब उन्हें ऐसा करते देखा, तो उससे रहा नहीं गया और वह उनसे पूछ बैठा – सेठ जी! आपको 100 सोने की मुद्राएं मिली थी, उन्हें भी आपने राजकोष में क्यों दे दी?
सेठ जी सहजता से बोले – भाई! मेरे सात बेटे हैं।
मैं उन सातों से प्रतिमाह 10—10 मुद्राएं लेता हूँ। मेरे लिए, तीन-चार मुद्राएं पर्याप्त होते हैं, शेष को भी मैं राजकोष में दे देता हूँ। फिर यह तो अतिरिक्त आय है। इसे अपने पास क्यों रखूं ?
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, धन की तीन गतियां होती हैं – दान, भोग और नाश। इनमें भोग, धन की मध्यम गति है। नाश अधम गति है और दान उत्तम गति है। इसलिए अपने आय का एक हिस्सा दान अवश्य करना चाहिए, तभी उस धन की सार्थकता है।