धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—468

गुरुनानक देव जी ने अपने पंथ के उत्तराधिकारी के रूप में अपने परिवार के सदस्यों में से किसी का चयन नहीं किया था। उनके मन में अपने शिष्य लहणा को वारिस बनाने की इच्छा थी। इसका कारण यह था कि लहणा सदैव गुरु की आज्ञा का पालन करते थे। उन्होंने लंगर व्यवस्था से लेकर वे सभी कार्य सच्ची निष्ठा और धैर्य से किए, जिनका निर्देश गुरुनानक देव जी ने दिया।

गुरुजी ने लहणा को मन ही मन उत्तराधिकारी चुन लिया था, कितु वे उन्हें सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करना चाहते थे। एक रात बहुत ही कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। ऐसे में आधी रात को गुरुजी ने अपने पुत्रों को बुलाकर कहा कि मेरे कपड़े मैले हो गए हैं, तुम इन्हें नदी में धोकर लाओ। सुबह में इन्हें पहनूंगा।

यह सुनकर पुत्र हैरान हो गए। इतनी ठंड और बर्फीली हवाओं के बीच आधी रात को नदी के ठंड़े पानी से कपड़े धोने की बात उनके लिए अकल्पनीय थी। वे बोले- “इतनी बर्फली ठंड़ में आधी रात को नदी पर कपडे धोने जाना ठीक नहीं है, हम सुबह आपके कपड़े धो लाएंगे।

तब गुरुजी ने अपने पुत्रों क॑ सामने लहणा को जगाया और उसे नदी पर कपड़े धोकर लाने को कहा। लहणा ने अपने गुरु से कोई तर्क नहीं किया और तत्काल उठकर गुरुजी के कपड़े धोने नदी पर चल दिए। वह कड़कड़ाती ठंड़ में नदी पर कपड़े धोकर लाए और आकर उन्हें सूखने के लिए डाल दिया। सुबह तक कपड़े सूख गए।

तब गुरुनानक देव जी ने अपने पुत्रों को जानकारी दी कि मैं ऐसे निष्ठावान शिष्य को अपना उत्तराधिकारी बना रहा हूं। उन्होंने लहणा को गुरु अंगद देव का नाम देकर स्नेहपूर्वक गद्दी सौंपी।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, सच्चा शिष्य हर परिस्थिति में गुरु की आज्ञा का पालन करता है। गुरु के आदेश को पत्थर की लकीर मानने वाला ही शिष्य ही उपाधि के योग्य बनकर अमूल्य गुरुकृपा हासिल करता है।

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Jeewan Aadhar Editor Desk