धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—476

एक युवक अपनी विधवा मां को अकेली छोडकर भाग निकला और एक मठ में जाकर तंत्र-साधना करने लगा। कई वर्ष बीत गए। एक दिन उस युवक ने अपने वस्त्र सुखने के लिए डाले और वहीं आसन बिछाकर ध्यानमग्न हो गया। जब आंखें खोली तो देखा कि एक कौआ चोंच से उसके एक वस्त्र को खींच रहा है।

यह देख युवक ने क्रोधित हो कौए की ओर देखा तो कौआ जलकर राख हो गया। अपनी सिद्धि की सफलता देख वह फूला नहीं समाया। अहंकार से भरा वह भिक्षा के लिए चला। उसने एक द्वार पर पुकार लगाई, किंतु कोई बाहर नहीं आया। उसे बड़ा क्रोध आया। उसने कई आवाजें लगाई, तब किसी स्त्री ने कहा- ‘महात्मन! कुछ देर ठहरिए। मैं साधना समाप्त होते ही आपको भिक्षा दूंगी।

युवक का पारा चढ़ गया। उसने कहा- ‘ दुष्टा! साधना कर रही है या हमारा परिहास। तू जानती नहीं, इसका कितना बुरा परिणाम होगा ? वह बोली- “जानती हूं आप शाप देंगे, कितु मैं कौआ नहीं हूं, जो आपकी क्रोधाग्नि में जलकर भस्म हो जाउ।

मां को अकेली छोड़कर अपनी मुक्ति चाहने वाले अहंकारी संन्यासी, तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। युवक का दर्प चूर हो गया। जब गृहस्वामिनी भिक्षा देने बाहर आई तो युवक ने उसकी साधना का राज पूछा। वह बोली- ‘मैं गृहस्थ धर्म की साधना निष्ठापूर्वक करती हूं। युवक को अहसास हुआ कि उसने न तो गृहस्थ धर्म और न ही साधु धर्म की ठीक से साधना की है। वह अंहकार त्याग घर लौट गया।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, कर्तव्यों का निर्वाहन समुचित रूप से करना ही सच्चा धर्मपालन होता है।

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Jeewan Aadhar Editor Desk