दक्षिण भारत के पैठन नगर में गोदावरी स्नान के मार्ग में ही एक सराय पड़ती थी। उस सराय में एक पठान रहता था। स्नान करके लौटते हुए हिन्दुओं को वह बहुत परेशान किया करता था। दूसरों को छेड़ने और सताने में ही उसको अपना बड़प्पन जान पड़ता था।
संत एकनाथ जी महाराज भी उसी मार्ग से स्नान के लिए गोदावरी में जया करते थे। वह पठान उन्हें भी बहुत तंग करता था। दूसरे लोग तो बुरा-भला भी कुछ कहते थे, परन्तु एकनाथ महाराज कभी कुछ बोलते ही नहीं थे।
एक दिन जब एकनाथ जी स्नान करके सराय के नीचे से जा रहे थे, तब उस पठान ने उनके ऊपर कुल्ला कर दिया। एकनाथ जी फिर नदी में स्नान करने लौट गए। किन्तु जब वे स्नान करके आने लगे, तब पठान ने फिर उन पर कुल्ला कर दिया। इस प्रकार एकनाथ जी को कभी-कभी चार-पांच बार स्नान करना पड़ता था।
“यह काफ़िर गुस्सा क्यों नहीं करता” यह सोचकर एक दिन पठान उनके पीछे ही पड़ गया। वह बार-बार कुल्ला करता और एकनाथ जी बार-बार गोदावरी स्नान करके लौटते गए। पूरे एक सौ आठ बार कुल्ला उसने किया और उतनी ही बार एकनाथ जी ने स्नान किया। अंत में संत की क्षमा की विजय हुई। पठान को अपने काम पर लज्जा आई। वह एकनाथ जी के पैरों में गिर पड़ा। बोला-“आप खुदा के सच्चे बंदे हैं। मुझे माफ़ कर दें। अब मैं कभी किसी को तंग नहीं करूंगा।”
“इसमें क्षमा की क्या बात हैं ? आपकी कृपा से आज मुझे एक सौ आठ बार गोदावरी का पुण्य स्नान प्राप्त हुआ।” एकनाथ जी ने यों कहकर उस पठान को आश्वस्त किया और अपने मार्ग से चलते गए। पठान ने उस दिन से उस मार्ग से जाने वाले स्नानार्थियों को फिर से तंग करना छोड़ दिया और एकनाथ जी सत्संग में नित्य जाकर सेवाकार्य करने लगा।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, संत का स्वभाव क्षमा करने का होता है। कई बार वे अपने शिष्यों पर क्रोध भी करते हैं लेकिन उसके पीछे भी उनकी भलाई का प्रयोजन छिपा होता है। वास्तव में हृदय से संत सभी के प्रति कोमलता लिए हुए होते हैं। उनके किसी भी प्रकार के बदले की या मान—अपमान की भावना नहीं छुपी होती। वे लोक कल्याण के कार्य में ही लगे रहते हैं।