धरती पर जब-जब अधर्म बढ़ता है, तब-तब धर्म की रक्षा के लिए ईश्वर किसी न किसी रूप में अपने दूतों को भेजते हैं। ऐसे ही एक संत थे, जो गाँव-गाँव घूमकर लोगों को सत्य, अहिंसा और धर्म का मार्ग दिखाते थे।
ऐसे ही घूमते—घूमते वे एक में पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि अमीर और बलशाली लोग गरीबों पर अत्याचार कर रहे हैं। गरीबों की मेहनत का फल छीन लिया जाता है। उनका निरंतर शोषण हो रहा है। वहां बच्चों को पढ़ने से रोका जाता। जो विरोध करे, उसे डराया-धमकाया जाता। गाँववाले मजबूरी में चुप थे, परंतु उनके दिलों में पीड़ा और आंसू भरे हुए थे।
संत ने जब यह सब देखा तो वे चुप न रह सके। उन्होंने गाँव के चौराहे पर सभा बुलाई और ऊँचे स्वर में कहा – “हे ग्रामवासियों! अन्याय का सहना भी पाप है। सत्य को दबाना अधर्म है, पर अधर्म को सहना उससे भी बड़ा अधर्म है। जो ईश्वर से प्रेम करता है, उसे धर्म की रक्षा के लिए खड़ा होना ही पड़ेगा।”
गाँववाले पहले डरते थे, पर संत के शब्दों ने उनके भीतर छुपा हुआ साहस जगा दिया। उन्होंने एकजुट होकर संकल्प लिया कि अब वे अन्याय को सहन नहीं करेंगे। जब अत्याचारी लोगों ने संत को डराने की कोशिश की, तो संत मुस्कराकर बोले –“तलवार से सत्य को नहीं दबाया जा सकता।
यदि धर्म की रक्षा के लिए मुझे प्राण देने पड़ें, तो मैं पीछे नहीं हटूँगा।”
संत की निडर वाणी ने गांव वालों में जोश भर दिया। गाँववाले एकजुट होकर संत के पक्ष में आकर खड़े हो गए। ये देखकर अधर्मी लोग काँप उठे। अंततः वे गाँव छोड़कर भाग खड़े हुए। गाँव में शांति, प्रेम और न्याय का वातावरण स्थापित हो गया।
सभी ग्रामवासी संत के चरणों में झुककर बोले – “महाराज, आपने हमें सिखाया कि सच्ची भक्ति केवल पूजा-पाठ नहीं, बल्कि अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना भी है। धर्म की रक्षा करना ही मनुष्य का सबसे बड़ा कर्तव्य है।”
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, सत्य और धर्म के मार्ग पर चलना ही ईश्वर की आराधना है। अधर्म का विरोध करना ही इंसान का सबसे बड़ा धर्म है। जो अधर्म को देखकर शांत रहता है उसे अंत में भीष्म पितामाह की तरह पीढ़ा सहनी पड़ती है।