एक बार एक धनी व्यापारी हर रोज़ मंदिर जाता था। वह बहुत सुंदर फूलों की माला, कीमती वस्त्र और ढेर सारी मिठाइयाँ भगवान के चरणों में चढ़ाता। फिर भी उसके मन को कभी शांति नहीं मिलती थी।
एक दिन उसने एक संत से पूछा— “गुरुदेव! मैं रोज़ मंदिर जाता हूँ, पूजा करता हूँ, भोग लगाता हूँ, दान करता हूँ… फिर भी मुझे भगवान की अनुभूति क्यों नहीं होती? क्या भगवान इस मंदिर की मूर्ति में नहीं हैं?”
संत मुस्कुराए और बोले— “भगवान मंदिर में हैं भी और नहीं भी।”
व्यापारी चौंक गया— “यह कैसी बात कही आपने? कृपया स्पष्ट कीजिए।”
संत ने व्यापारी का हाथ पकड़कर उसे पास के तालाब तक ले गए। वहाँ कुछ बच्चे खेल रहे थे। वे सब मिलकर तालाब में कूद रहे थे और एक-दूसरे पर पानी डालकर हँसते-खेलते थे।
संत ने कहा— “देखो! पानी इस तालाब में हर जगह है, पर जो बच्चा पानी में उतरता है वही ठंडक और आनंद पाता है। बाहर खड़ा केवल देखकर तृप्त नहीं होता। भगवान भी ऐसे ही हैं। वे इस मंदिर की मूर्ति में भी हैं, तुम्हारे घर में भी, हर जीव के भीतर भी। पर जब तक तुम अपने भीतर के स्वार्थ, अहंकार और लोभ को धोकर भगवान के प्रेम में नहीं उतरोगे, तब तक उनकी अनुभूति नहीं होगी।”
व्यापारी ने नम्रता से पूछा— “तो फिर भगवान तक पहुँचने का रास्ता क्या है, गुरुदेव?”
संत ने समझाया— “भगवान का रास्ता है—भक्ति, सेवा और करुणा। जब तुम किसी भूखे को भोजन कराओगे, किसी दुखी को सहारा दोगे, किसी दुखी हृदय को सांत्वना दोगे, तब तुम भगवान को छुओगे। मंदिर की मूर्ति तुम्हें याद दिलाती है कि हर जगह वही परमात्मा विराजमान हैं।”
व्यापारी की आँखों में आँसू आ गए। उस दिन के बाद से वह केवल मंदिर में पूजा ही नहीं करता, बल्कि समाज की सेवा में भी लग गया। अब उसे जहाँ भी वह दया और प्रेम देखता, वहाँ उसे भगवान का दर्शन होने लगता।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, भगवान केवल मंदिर की मूर्ति में ही नहीं, बल्कि हर जीव में, हर कण में हैं। उनका असली रास्ता है—पवित्र हृदय, निस्वार्थ सेवा और सच्ची भक्ति।