एक बार एक संत अपने शिष्यों के साथ एक गाँव में प्रवचन देने गए। प्रवचन के बाद उन्होंने गाँव के सबसे धनी व्यक्ति के घर विश्राम किया। घर बहुत विशाल था, परंतु भीतर अव्यवस्था थी—हर कोने में पुरानी टूटी चीजें, बेकार बर्तन, पुराने कपड़े और अनुपयोगी वस्तुएँ भरी पड़ी थीं।
संत मुस्कुराए और बोले, “भैया, तुम्हारा घर तो खजाना लगता है, पर यहाँ कोई साँस भी ले तो भारी हो जाए।”
गृहस्वामी हँसकर बोला, “महाराज, ये सब पुरानी चीजें हैं, सोचा कभी न कभी काम आ जाएँगी, इसलिए रख लीं।”
संत बोले, “बिलकुल ऐसा ही मनुष्य अपने जीवन में करता है। वह मन और घर—दोनों में अनुपयोगी चीजें जमा करता रहता है। पुरानी चीजें, पुराने विचार, पुराना दुख, पुरानी नफरत—सबको सहेज कर रखता है और फिर कहता है कि जीवन में शांति क्यों नहीं है।”
संत ने शिष्यों को एक उदाहरण देकर समझाया— “मान लो तुम्हारे पास एक सुंदर कलश है, पर वह मिट्टी और धूल से भरा है। अब यदि उसमें गंगाजल डालो, तो क्या वह पवित्र रहेगा? नहीं। गंगाजल भी गंदा हो जाएगा। ऐसे ही जब तक हमारा मन और घर अनुपयोगी वस्तुओं और नकारात्मक विचारों से भरा रहेगा, तब तक कोई भी शुभ ऊर्जा उसमें स्थिर नहीं रह सकती।”
फिर संत ने गृहस्वामी से कहा, “जैसे हर अमावस्या के बाद नया चाँद आता है, वैसे ही हर दिन अपने जीवन को नया बनाओ। अनुपयोगी वस्तुएँ और विचार निकालो—तभी श्रेष्ठ और पवित्र चीजें उसमें प्रवेश कर पाएँगी।”
गृहस्वामी ने संत की बात हृदय से स्वीकार की। अगले दिन उसने घर से अनावश्यक वस्तुएँ निकाल दीं और मन से भी पुराने दुख और क्रोध का त्याग कर दिया। कुछ ही समय में उसका घर उजला, मन हल्का और चेहरा शांत हो गया।
संत ने मुस्कुराकर कहा— “देखो, जब घर और मन दोनों स्वच्छ हों, तो वहाँ परमात्मा स्वयं निवास करते हैं। जीवन में वही रखो जो पवित्र है—वस्तु भी और विचार भी। क्योंकि अपवित्रता जहाँ होगी, वहाँ सुख और ईश्वर दोनों नहीं रह सकते।”
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, जो श्रेष्ठ और पवित्र है, वही हमारे जीवन में रहना चाहिए। चाहे वह वस्तु हो, संबंध हो या विचार। अनुपयोगी चीजों का त्याग केवल सफाई नहीं—यह आत्मा की उन्नति का मार्ग है।









