बहुत समय पहले की बात है। एक राज्य में एक प्रसिद्ध संत रहते थे। लोग कहते थे— “इनके सामने कोई झूठ नहीं टिकता, क्योंकि ये शब्दों के पीछे छुपा मन पढ़ लेते हैं।”
एक दिन राजा ने संत को राजमहल बुलाया। राजा चिंतित था। उसने कहा— “महाराज, मेरा राज्य समृद्ध है, फिर भी लोग असंतुष्ट हैं। आपस में झगड़े, कटुता और अविश्वास बढ़ता जा रहा है।”
संत ने कुछ नहीं कहा। उन्होंने एक थैली निकाली और राजा को दी। थैली में कीलें थीं।
संत बोले— “कल दरबार में जो भी व्यक्ति किसी के लिए कटु शब्द बोले, उसे दीवार में एक कील ठोकनी होगी।”
अगले दिन दरबार लगा। कोई बोला— “यह मंत्री बेईमान है।” ठक! एक कील।
कोई बोला— “यह कर्मचारी निकम्मा है।” ठक! दूसरी कील।
शाम तक दीवार कील से भर गई।
संत ने राजा से कहा— “अब अगले सात दिन कोई भी कटु शब्द बोले, तो एक कील निकालनी होगी।”
राजा को लगा— यह तो आसान है। लेकिन सात दिन बीत गए… दीवार से मुश्किल से कुछ ही कीलें निकलीं।
संत राजा को दीवार के पास ले गए। बोले— “कीलें तो निकल गईं, लेकिन दीवार में छेद रह गए।”
राजा चुप हो गया।
संत ने गंभीर स्वर में कहा— “कटु शब्द भी ऐसे ही होते हैं। माफ़ी मांग लो, बात संभाल लो—
लेकिन दिलों में जो घाव बनता है, वह रह जाता है।”
फिर संत ने एक सूखे पौधे की ओर इशारा किया और कहा— “इस पौधे को रोज़ अपशब्द सुनाए गए। और उस हरे पौधे को रोज़ अच्छे शब्द।”
राजा ने देखा— एक पौधा मुरझाया हुआ था, दूसरा हरा-भरा।
संत बोले—“शब्द केवल सुनाई नहीं देते—वे असर करते हैं। वे सामने वाले को नहीं, पहले बोलने वाले को गढ़ते हैं।”
राजा ने उसी दिन से दरबार में एक नियम बनवाया— ‘यहाँ वही बोलेगा, जो जोड़ सके— तोड़ने वाले शब्दों को प्रवेश नहीं।’
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, “मनुष्य की पहचान उसके कपड़ों से नहीं, उसकी वाणी से होती है।
क्योंकि हमारे शब्दों से हमारा स्वभाव, सोच और संस्कार झलकते हैं। इसलिए अगर जीवन सुंदर चाहिए— तो शब्द भी सुंदर चुनो।”








