धर्म

ओशो : चार बात

बुद्ध एक गांव में रूके हैं और एक आदमी को उन्होंने ध्यान दीक्षा दी है। उससे कहा कि करूणा का पहला सूत्र कि ध्यान के लिए बैठे तो समस्त जगत के प्रति मेरे मन में करूणा का भाव भर जाए, इससे शुरू करना। उसने पहले कहा और तो ठीक है, सिर्फ मेरे पड़ोसी को छुडवा दें, उसके प्रति करूणा करना बहुत मुश्किल है। बहुत दुष्ट है। और बहुत सता रखा है उसने। और मुकदमा भी चल रहा है। और झगड़ा-झासा भी है। और गूंडे भी उसने इकठ्ठे लगा रखे हैै, मुझे भी लगाने पड़े है। सारे जगत के प्रति करूणा में मुझे जरा-भी दिक्कत नही हैं, यह पड़ोसी भर छोड़ दें। क्या इतने से कोई दिक्कत आएगी ध्यान में? सिर्फ एक पड़ोसी। यहां क्लिक करे—स्कूली निबंध प्रतियोगिता..विद्यार्थी और स्कूल दोनों जीतेंगे सैंकड़ों उपहार

बुद्ध ने कहा सारे जगत को छोड़, सिर्फ एक पड़ोसी पर ही करूणा करना काफी होगा। क्योंकि दोष जो भरा है वह उस पड़ोसी के लिए है, सारे जगत से कोई -लेना देना नहीं है। करूणा, वह दोष का परिहार करेगी जो हमारे चित्त में इकठ्ठे होते हैं।
दूसरा बुद्ध ने कहा, मैत्री। समस्त जगत के प्रति मैत्री का भाव। समस्त जगत में आदमी ही नहीं, सब कुछ।
तीसरा बुद्ध ने कहा, मुदिता। प्रफुल्लता का भाव, प्रसन्नता का भाव। ध्यान रखना कि जब हम प्रफुल्लता होते हैं तब जगत के प्रति हमारे भीतर से कोई दोष नहीं बहता। और जब हम दुखी होते हैं, हम सारे जगत को दुखी करने का आयोजन सोचने लगते हैं। दुखी आदमी सारे जगत को दुखी देखना चाहता है। उससे ही उसको सुख मिलता है। और कोई सुख नहीं उनका। जब तक आप उनसे ज्यादा दुखी न हों, तब तक वह सुखी नहीं हो पाते।
दुखी आदमी को जब चारों तरफ दुख दिखायी पड़ता है, तब वह निश्चितता से बैठ जाता है। बुद्ध ने कहा है तीसरा, मुदिता। प्रफुल्लता से बैठना। हृदय को प्रफुल्लता से भरना।
और चौथा बुद्ध ने कहा है , उपेक्षा। कुछ भी हो जाए- अच्छा हो कि बुरा फल मिले कि न मिले,ध्यान लगे कि न लगे, ईश्वर से मिलन हो कि न हो, असफलता आए, सफलता आए,श्रेय, अश्रेय, कुछ भी हो, उपेक्षा रखना। दोनों में समतुल रहना। दोनों में चुनाव मत करना। ये चार को बुद्ध ने कहा है।
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करीब-करीब सभी धर्मो में इनसे आसपास कुछ बातें कही हैं। लेकिन बुद्ध ने इस चार में समस्त धर्मो के सार को इकठ्ठा कर दिया। इनसे हृदय के दोष अलग हो जांएगे। ध्यान इनके बाद सुगम बात होगी, सहज बात होगी।
दुख व शोक से परे उस विशुद्ध भक्ति- तत्व का चिुतन-मनन ध्यान। भक्ति-तत्व के संबंध में मैंने बात की है। इस हृदय में, इस ….शरीर हो शुद्ध, आसन हो, एंकात हो, हृदय के सारे विराट हट गये हों, तब इस हृदय में समस्त अस्तित्व के प्रति जो आत्मियता, एकता, एकत्व का भाव है, वही भक्ति है। इस क्षण में मैं जगत के साथ एक हूं, अस्तित्व के साथ एक हूं, इसका ध्यान ही ध्यान है।
अब इस पूरे सूत्र को मैं पढ़ देता हूं।-
ब्रहा्र को जानने की जिज्ञासा से भरे, संन्यास के भाव में ठहरे हुए, स्नान आदि से अपने शरीर को शुद्ध करके सुखासन लगाकर, सिर , गले, व शरीर को एक सीध में रखकर, समस्त इंद्रियों का एकग्र करे, श्रद्धा व भक्ति से अपने गुरू को प्रणाम करे, हृदय कमल से सब दोषों को निकालकर दुख व शोक से परे उस विशुद्ध भक्ति-तत्व का चिंतन करना ही ध्यान है। उसकी चिंतन में डूब जाना ही ध्यान है।
इतना ही।
अब हम ध्यान में प्रवेश करें। दो-तीन बातें । जो लोग तेजी से करें, वे मेरे करीब तीनों ओर आ जाएं। और जो लोग धीरे करने धीरे करने को हों, वे पीछे हट जाएं।
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