शुकदेवजी ने कहा,परीक्षित। सब कुछ भूल जाओ,केवल परमात्मा में ध्यान लगाओ। जब तक मैं तुम्हारे पास बैठा हूं कोई तक्षक यहाँ नहीं आ सकता। शुकदेवजी ने अपना वरद-हस्त परीक्षित के सिर पर रखा औश्र कहा, हे परीक्षित। मैंने सात दिन में भागवत के माध्यम से जो कुछ भी तुम्हें सुनाया, उन सब गाथाओं, को बिल्कुल भूल जाओ। क्यों? क्योंकि केवल श्रीकृष्ण को याद रखो-उसको याद रखो और सब कुछ भूल जाओ।
अनेक प्रकार की साधना करो,तीर्थो पर जाओ,गंगा में स्नान करो यमुना में नहाओ और एक ओर कृष्ण नाम का जाप करो तो नाम जाप का पलड़ा भारी होगा। कृष्ण-नाम जाप से पाप जल जाते हैं चित्त की शुद्धि हो जाती है मन निर्मल हो जाता है। श्रीकृष्ण की लीला, और कथा अनन्त है।
सन्त महात्मा-जन इन कथाओं और लीलाओं का अपने अपने ढंग से वर्णन करते हैं और कथा अमृत का पान स्वयं करते हैं तथा दूसरों को भी करवाते हैं। इस कृष्ण-कथा के प्राकट्य के साथ ही गंगास्नान की महिमा कम हो गई हैं,क्योंकि गंगा तक पहुंचने के लिए रूपये भी चाहिये और वहाँ तक पहुंचने में अनेक कष्टों का सामना भी करना पड़ता। जबकि कृष्ण-कथारूपी अमृत का पान करने में न ही रूपयों की जरूरत पड़ती ,न ही कहीं जाना पड़ता हैं। गंगास्नान में केवल शरीर की शुद्धि होती हैं,जबकि कृष्ण कथा श्रवण करने से मन और चित्त की शुद्धि होती हैं,अत: अपने जीवन का लक्ष्य प्रभुप्राप्ति बनाओ। हे परीक्षित केवल कृष्णमन्त्र को याद रखो और हर क्षण उसका ध्यान धरते हुए प्रेम से गाओ और मग्र हो जाओ।
हे परीक्षित सर्वदा श्रीकृष्ण को याद रखो। चार वेद छ:शास्त्र और सतरह पुराणों का सार है। श्रीमद्भागवत और श्रीमद्भागवत का सार है दसवाँ स्कन्ध। दशवें स्कन्ध का सार है रास-पंचाध्यायी और सारी भागवत का सार है- श्रीकृष्ण। अत: श्रीकृष्ण का ध्येय बनाओ। शुकदेवजी का वरदहस्त परीक्षित के सिर पर रखा हुआ है। परीक्षित का मुख मण्डल कान्ति से चमक रहा है।
तक्षक नाग ब्रह्मण बनकर के कथा स्थल पर आया। जो इच्छादारी साँप होते हैं वह अपनी इच्छानुसार कोई भी रूप धारण कर सकते हैं,यह उनको वरदान होता हैं,इसीलिए तक्षक सर्प ने ब्रह्मण का रूप बनाया,गौर वर्ण हृष्ट-पुष्ट,चौड़ा ललाट,माथे तिलक,काली जटायें,कथा स्थल पर आया, लेकिन द्वार पर खड़े दरवारी कर्मचारी ने अन्दर जाने के लिए मना कर दिया,क्योंकि कथा में अपरिचित का जाना मना कर रखा था। ब्रह्मण ने देखा माली फूलों की माला लेकर अन्दर जाकर बैठ गया। माली ने माला ले जाकर अन्दर दी,जनमेय ने माला उठाई औ कहा, हे गुरूदेव मैंने सन्त के शाप को झूठा कर दिया,मैंने काल को जीत लिया है, सायँकाल हो चुकी है ,कहाँ आया तक्षक? शुकदेवजी हँस रहे हैं? जनमेय ।
कर्म गति को संसार में कोई नहीं टाल सकता। गुरूदेव । मैंने पिता जी की रक्षा के लिए कड़े से कड़ा प्रबन्ध किया है।
12 कोस तक मच्छरदानी लगवाई है। मच्छर तक नहीं आ सकता तो सर्प की बात ही कहाँ?
12 कोस तक बुहारी लगाई जा रही हैं,चींटी अन्दर न आ जाये। वैद्य-डॉक्टरों का पूरा इन्तजाम करवाया गया है। सपेरों को भी यहाँ बुलवाया गया हैं जहर उतारने के लिए। पहली बात तो सर्प आ ही नहीं सकता। कर्मयोग से यदि डस भी लेगा तो फौरन जहर निकाल दिया जायेगा। शुकदेवजी फरमा रहे हैं कि जीव चाहे पताल में भी जाकर क्यों न छिप जाये,लेकिन काल से नहीं छिप सकता।
जनमेय ने माला उठाई और बड़े प्रेम से अपने पिताजी के गले में माला पहना दी। गुरूदेव को भी माला पहनाई,परन्तु रक्षक छोटे काले रंग का कीड़ा बनकर परीक्षित वाली माला में बैठा था, पहनाते ही अपने रूप में तक्षक नाग प्रकट हुआ डंक मारा और आकाश मार्ग से उड़ता हुआ चला गया। नाग के डसने से जहर शरीर में फैलने के कारण जीव तड़पता है,बेहोश हो जाता है,लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। सभी राजा परीक्षित और गुरूदेव की ओर टकटकी लगाए देख रहे हैं।
राजा परीक्षित के शरीर में से एक ज्योति प्रकट हुई और महाज्योति के साथ मिल गई। जब शुकदेवजी भागवत सुनाने के लिए आसन पर विराजित हुए तो देवता भी अमृतकलश लेकर कथाश्रवण के लिए आये थे और शुकदेव से निवेदन किया था, हे गुरूदेव। एक अमृत कलश को राजा परीक्षित को पिता दो,ताकि राजा परीक्षित अमर हो जाये। और हमें कृष्णकथा का अमृतरसपान करा दो। शुकदेवजी हंसने लगे और कहा था,अरे देवताओं,तुम्हारा यह अमृतपान तो केवल स्वर्ग तक पहुंचायेगा,जहाँ से जीव को फिर मृत्युलोक आना पड़ता है और यह कृष्ण-कथा का अमृत-पान तो राजा को अमर बना देगा।
इस प्रकार परीक्षित स्वर्ग-लोक मेंनहीं रूका। सीधा कृष्णधाम में गया,श्रीकृष्ण ने अपने भक्त को हृदय से लगा दिया। जीव ब्रह्म एक ओर हो गए।
प्रेमी भक्तजनों सात दिवस तक अपने अपने समय का सदुपयोग किया, कृष्णकथा का रसपान किया। कथा जीवन में उतारोगे तो कथाश्रवण सार्थक होगा। कथाश्रवण के समय वक्ता और श्रोता से जाने-अनजाने कुछ दोष हो जाने की सम्भावना रहती है अत: कोई कटु शब्द मुंह से निकल गया हो तो परबह्म परमात्मा हमको क्षमा करें। सत्कर्म का कोई अन्त नहीं होता। जीवन में अन्तिम शवाँस तक सत्कर्म करते रहो।