धर्म

ओशो : एकांत

एक आदमी को अगर किसी की हत्या करना हो तो आज तक दुनिया में एक भी ऐसा हत्यारा नहीं हुआ,जो यह कर सके कि भीतर उसने बहुत बार हत्या नहीं की थी। और इसलिए अगर भीतर की हत्या का हिंसाब रखें, तो आदमी खोजना मुश्किल होगा जो हत्यारा न हो। क्योंकि भीतर तो हम सभी हत्याएं करते रहते हैं। यह दूसरी बात है हम बाहर तक नहीं पहुंचते कोई बाहर तक पहुंच जाता है।
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मनस्विद कहते हैं कि हत्याएं तो दूर, ऐसा आदमी भी खोजना मुश्किल है जिसने मन में अपने भीतर आत्महत्या न कर ली हो। कई बार अपने को खत्म ही न कर लिया हो- कि खत्म कर ही दो। यह दूसरी बात है कि अभी कृत्य नहीं बना, लेकिन कभी भी बन सकता है। क्योंकि विचार बीज है। और मजबूत होता जाए तो कभी भी कृत्य बन सकता है।
मन के भीतर हम एक जगत को बनाए हुए हैं। वहीं भीड़ है। वासनाएं पहले मन में निर्मित होती है, जड़े फैलाती है, अंकुरित होती हैं। बहुत बाद में कहीं उनके पत्ते और शाखाएं बाहर के जगत में पहुंचते हैं। और हजार वासनाएं भीतर निर्मित होती है, तो एक ही बाहर तक पहुंच पाती है। कितनी योजनाएं मन के भीतर- निर्मित होती है, जिनमें से शायद सौ में से एक भी पूरी नहीं हो पाती।
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अगर हम जीने का हिसाब समझें ठीक से, तो अगर एक आदमी सौ साल जीता हो, तो कम -से -कम अस्सी साल तो वह भीतर जीता है, बीस साल बाहर। यह जो भीतर जीने की प्रक्रिया है, यह हमारी भीड़ है। इसलिए हम कहीं भी चले जाएं, हम तो कम-से- कम वहां होंगे ही। सबको छोड़ पहुंच कर चले जाएं जगंल में, तो भी मैं अपने को कहां छोड़ जाऊंगा? मैं तो वहां ही जाऊगां। मेरा वहाँ पहुंच जाना अनिवार्य है। मैं अपने को तो पीछे नहीं छोड़ पाऊंगा। और जब मैं अपने साथ जाऊंगा तो अनिवार्य रूप से मेरे मन की सारी कल्पनाएं, मेरे मन की सारी वासनाएं, मेरी सारी योजनाएं, मेरे मन के सारे संबंध, सब मेरे साथ इकठ्ठे हो जाएंगे। और ये सब मेरी भीड़ है।
इस आतंरिक भीड़ को मिटाने का नाम एकांत है।
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