धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—115

जो नर गुरू वचन पर डट गए, कट गए फंद चौरासी के।
जो गुरू के वचनानुसार अपने जीवन को ढाल लेता हैं। गुरू के उपदेश और आदेशानुसार अपने जीवन को बना लेता है वे चौरासी-लाख जीव योनि से मुक्त हो जाते हैं। शिष्य को इतना दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि गुरू जो कुछ भी कह रहे हैं और कर रहे हैं,शिष्य की भलाई के लिए ही कर रहे हैं।

गुरू और शिष्य का आपस में कितना विश्वास होना चाहिए,इसका उदाहरण सुनिए-
एक गुरू और शिष्य तीर्थ यात्रा के लिए पैदल जा रहे थे।आज से 50-60 वर्ष पहले अधिकतर पैदल ही तीर्थ यात्रा पर लोग जाया करते थे। जंगल,पहाड़, नदी, नाले,कांटे सभी कुछ आए। दोनों गहन जंगल में से गुजर रहे थे। आस पास कोई गांव या आश्रम कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। गुरू ने कहा बेटा जंगल तो बहुत विरान हैं,फिर भी देखो कहीं कोई सराय या कुँआ, बावड़ी आदि दिखाई दे जाए। पहले सेठ साहूकार जगह -जगह कुएं धर्मशाला आदि बनवा देते थे ताकि पथिक को पान मिल जाए और रात को ठहरने के लिए जगह मिल जाए। पहले के सेठ पुण्य कार्य में अपना सहयोग अच्छा देते थे।

उसी धन को आजकल शो बाजी में लगाकर धन का दुरूपयोग किया जा रहा हैं। पहले यह दिखवा कम था। पैसे का सदुपयोग ज्यादा था। उस शिष्य ने इधर उधर देखा तो एक कुंआ दिखाई दिया और साथ ही एक छोटी सी धर्मशाला भी थी। दोनों उसी धर्मशाला में गए। गुरूदेव ने कहा बेटा आज रात को यही विश्राम करेंगे। रात को स्नान किया, पूजा पाठ की। जब विश्राम के लिए लेटे तो शेर के दहाडऩे की आवाज सुनाई देने लगी। गुरूदेव ने कहा,दोनों का साथ सोना ठीक नहीं हैं। बेटा पहले तुम सो जाओ मैं पहरा दूंगा। शिष्य ने कहा,गुरूदेव पहले आप विश्राम कीजिए,क्योंकि आप सुबह जल्दी उठ जाते हैं, अत: पहले आप सो जाओ मैं आपकी सेवा में जागृत रहता हूं। शिष्य ने चरण दबाए, नींद आ गई। एक बजे के करीब गुरूदेव उठे और कहा,बेटे अब तुम सो जाओ। शिष्य सो गया।

गुरूदेव उठे, स्नान किया और भजन-भाव में लग गए, इतने में अचानक एक काला साँप आया,बड़ा भयानक सांप था। शिष्य की छाती पर बैठ गया। ज्योंहि साँप ने फुंसकार की, गुरूदेव का ध्यान टूटा और उस काले साँप को देखा। देखकर बोले खबरदार इसको काटना नहीं। भक्ति की शक्ति से वह नाग आदमी बन गया। इच्छाधारी जो नाग होते हैं वह कोई भी रूप धारण कर सकते हैं। वह आदमी बन गया और हाथ जोडक़र कहने लगा, महाराज मैं नाग हूं। सौ साल पहले इसने मेरा खून पिया था। मैं मर कर साँप बन गया और इसकी तालाश में था। आज यह मुझे मिल गया हैं। मैं अपना बदला अवश्य लूंगा। गुरूदेव ने पूछा था कितना खून पिया था इसने तुम्हारा? छंटाक। गुरूदेव ने कहा हे सर्पराज! मैं छंटाक खून निकालकर तुम्हें देता हूं,तुम इसकी छाती में डंक मत मारना।

शिष्य गहरी नींद में सो रहा था। रात के ढाई बजे हैं। गुरूदेव ने हाथ में छुरी ली और गर्दन से ज्योंहि खून निकालने के लिए हाथ बढ़ाया,शिष्य जग गया,आँखे खोली तो गुरूदेव के हाथ कंप गए। शिष्य ने पुन: आँखे बन्द कर ली और सोने का बहाना किया। गुरूदेव ने छंटाक खून गर्दन के पास से निकाला और साँप को पिला दिया। खून पीकर साँप चला गया। गुरू जड़ी बुटियों का जानकार था, जंगली दवा घाव पर लगाई, खून बन्द हो गया।

गुरूदेव ने शिष्य से पूछा,बेटा मेरे हाथ में छुरी देखकर क्या तुम्हें डर नहीं लगा? शिष्य ने उठकर चरणों में प्रणाम किया और विन्रम शब्दों में निवेदन किया,गुरूदेव मुझे आप पर पूरा भरोसा है, मैंने सोचा कि गुरूवर यदि मेरी गर्दन भी काटेंगे तो भी इसमें मेरा कल्याण होगा। गुरूवर ऐसा कोई काम नहीं कर सकते जिससे मुझे कोई हानि हो। धन्य है ऐसे विश्वासकर्ता शिष्य पर। ऐसे विश्वासी शिष्यों का उद्धार निश्चित हैं।

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