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आचार्य अन्तेवासी अर्थात् अपने शिष्य और शिष्याओं को इस प्रकार उपदेश करे कि तू सदा सत्य बोल, धर्माचार कर, प्रमादरहित होके पढ़ पढ़ा, पूर्ण ब्रहा्रचर्य से समस्त विद्याओं का ग्रहण कर और आचार्य के लिए प्रिय धन देकर विवाह करके सत्नानोत्पत्ति कर। प्रमाद से सत्य को कभी मत छोड़, प्रमाद से धर्म का त्याग मत कर, प्रमाद से अरोग्य और चतुराई को मत छोड़ , प्रमाद से पढऩे और पढ़ाने को कभी मत छोड़। देव विद्वान् आर माता पितादि की सेवा में प्रमाद मत कर। जैसे विद्वान का सत्कार करे उसी प्रकार, माता, पिता आचार्य और अतिथि की सेवा सदा कर, उन से भिन्न मिथ्याभाषणादि कभी मत कर। जो हमारे पापाचरण हों उन को कभी मत कर।जीवन आधार प्रतियोगिता में भाग ले और जीते नकद उपहार
जो हमारे पापाचरण हों उन को कभी मत कर। जो कोई हमारे मध्य में उत्तम विद्वान् धर्मात्मा ब्रहा्रण हैं, उन्हीं के समीप बैठ लज्जा से देना, भय से देना और प्रतिज्ञा से भी देना चाहिए। जब कभी तुझ को कर्म वा शील तथा उपासना ज्ञान में किसी प्रकार का संशय उत्पन्न हो तो जो वे जन हों जैसे वे धर्ममार्ग में वर्त वैसे तू भी उसमें वत्र्ता कर। यही आदेश आज्ञा, यही उपदेश, यही वेद की उपनिषत् और यही शिक्षा है। इसी प्रकार वत्र्तना और अपना चाल चलन सुधारना चाहिए।
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