धर्म

ओशो : जुआरी का मतलब

दुकानदार का मन पूरे समय लाभ की भाषा में सोचता है, हिसाब-किताब और गणित। जुआरी का एक और ढंग है। वह सब लगा देता है । वह कहता है:सब इकठ्ठा लगा दिया। सब लगाने में खतरा है। मिले तो सब मिल जायेगा और गया तो सब चला जायेगा। खतरा यही है। फिर मिलने का क्या पक्का है? किसी को कभी मिला है, इसका भी क्या पक्का है? पता है बुद्ध को मिला कि नहीं मिला? कौन जाने न मिला हो, झूठ ही कहते हो मिल गया। कैसे तुम भरोसा करो? क्योंकि यह बात तो भीतरी है। यह रस तो भीतरी है। बुद्ध के पास भी कोई प्रमाण तो नहीं है कि हाथ पर रख कर बता दें। मान लो तो मान लो। मगर मानना तो फिर जुआरी का ही काम है। नौकरी की तलाश है..तो यहां क्लिक करे।

दुकानदार कहता है:प्रमाण क्या है? आपको ईश्वर मिला ,मुझे दिखा दें। आप को समाधि लगी, प्रमाण क्या है? आपको आत्मा का अनुभव हुआ, प्रमाण क्या है? प्रमाण चाहिए,वस्तुगत प्रमाण चाहिए। विज्ञान की प्रयोगशाला में प्रमाण चाहिये।
कोई प्रमाण नहीं है। प्रेम का कोई प्रमाण नहीं है। प्रार्थना का कोई प्रमाण नहीं है। समाधि का कोई प्रमाण नहीं है। परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है। प्रामण क्षुद्र के होते हैं, विराट के नहीं होते। प्रमाण बाहर की बातों के होंते है, भीतर की बातों के नहीं होते। भीतर की बातें तो भीतर तुम अपने जाओगे तो जानोगे। यह तो बड़ी कठिन बात है। बुद्ध होओगे तब तुम जानोगे कि बुद्ध को जो मिला, वह चस मिला था। मगर इसके पहले तुम नहीं जान सकोगे। फिर मिलने के बाद जाना, तो जानने से सार क्या है? सार तो तब था कि जब दांव पर लगाना था तब पक्का प्रमाण हो जाता कि हां मिलता है, तो दाव लगाने में आसानी हो जाती है। फिर तुम दुकानदार होते तो भी दांव लगा देते।जीवन आधार प्रतियोगिता में भाग ले और जीते नकद उपहार
जुआरी का मतलब :ज्ञात को अज्ञात के लिये दांव पर लगाना, जो दांव है उसको उसके दांव पर लगा देना, जो हाथ में नहीं है। समझदार तो कहते है:हाथ की आधी रोटी अच्छी। हाथ में तो है। पूरी रोटी दूर की, उससे तो आधी हाथ की रोटी अच्छी। जुआरी कहते है कि आधे से मन तो कभी भरेगा नहीं, एक बार लगा देना चाहिए। मिले तो पूरी मिले या पूरी जाये। इधर पूर्ण या उधर पूर्ण, किसी तरह पूर्ण हो जाये। या तो बिलकुल पूरें नंगे हो जायेंगे, कुछ न बचेगा, या पूरे भर जायेंगे, सब कुछ मिल जायेगा।
जुआरी का मतलब ही यही होता है:या तो सब या कुछ भी नहीं। या तो शून्य या पूर्ण।
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धनी धरमदास कहते हैं, जुआ तो खेलना होगा। सम्हाल कर खेलना। सम्हलने का मतलब यह होता है कि तैयारी से खेलना। दांव लगाने के पहले दांव लगाने योग्य अपने को बना लेना। दांव क्या लगाना है- अपने को ही दांवे पर लगाना है। अपनी जरा कीमत बना लेना, तभी तरे दांव पर लगाने का कुछ मजा होगा।
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Jeewan Aadhar Editor Desk

सत्यार्थ प्रकाश के अंश—06