धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से-78

राजा जरासन्ध ने मथुरा पर 17 बार चढ़ाई की और हर बार पराजित हुआ। 18वीं बार पुन: चढ़ाई करने के समय पण्डितों को,ब्राह्मणों को बुलाया और शुभ मुहूर्त पूछा और कहा, ऐसा कोई लग्र देखकर बताओ, जिससे मेरी विजय हो, यदि इस बार भी मैं हार गया, तो तुम सबको मृत्यु दण्ड दूंगा। सुनकर सभी ब्राह्मण भयभीत हो गए,क्योंकि उन्होंने ग्रह-नक्षत्र आदि की सहायता से जान लिया था कि इसके भाग्य में हार ही है,लेकिन बोला कोई नहीं,समझदारी से काम लिया।

सभी पण्ड़ितों ने मिलकर निर्णय लिया कि दो महीने बाद चढ़ाई करने के लिए कहा जाये ताकि दो मास तो अच्छी तरह व्यतीत हों,तो सबने कहा, महाराज दो महीने के बाद लड़ाई का मुहूर्त निकलता है,अत: आप शुभ समय और शुभ मुहूर्त,शुभ लग्र का इन्तजार कीजिए। सभी पण्ड़ित मृत्युदण्ड से भयभीत हुए उल्टी माला जपने लगे और भगवान् श्रीकृष्ण से विनती करने लगे,हे भगवान !आप युद्ध में हार जाना, यदि आप जीत गये और जरासन्ध हार गया तो वह हमें जीवित ही मार देगा। भगवान को भक्त की रक्षा करनी पड़ती है।

यह सोचकर कि यदि भक्त ही नहीं रहेंगे तो मेरी भक्ति कौन करेगा? कौन मुझे पुकारेगा? 18वीं बार जब जरासन्ध ने लड़ाई की घोषणा की तो श्रीकृष्णजी ने बलराम से कहा,भैया अब ये मथुरा हमें छोडऩी पड़ेगी,इसीलिए विश्वकर्माजी को बुलाया और कहा जितना भी धन-माल और जान-माल है सभी ले जाओ और गुजरात में समुद्र के बीच सुन्दर नगरी का निर्माण करो,लेकिन समय केवल एक दिन का है। वह विश्वकर्मा कौन है? स्वयं श्रीकृष्ण।

एक दिन में ऐसी सुन्दर नगरी बनाई जिसकी सुन्दरता का वर्णन करना कठिन कार्य ही नहीं, अपितु असम्भव है। उस नगरी के पांच दरवाजे बनाये और प्रत्येक द्वार पर श्रीकृष्ण को बैठा दिया गया। मूर्ति इतनी संजीव थी कि दूर से देखने वाले को भगवान् स्वयं श्रीकृष्ण नजर आते हैं। उस नगरी का नाम द्वारिका पुरी रख दिया गया। द्वार-दरवाजा,क-कृष्ण,पुरी -नगरी अर्थात जिसके प्रत्येक द्वार पर श्रीकृष्ण हैं, उस नगरी का नाम है- द्वारिकापुरी।

एक द्वारिकापुरी है गुजरात के समुद्र में एक द्वारिकापुरी है हमारे और आपके पास। जो यह हमारा पंचतत्व से बना शरीर हैं उसे द्वारिकापुरी बना लो। ये पंच तत्व हैं- पृथ्वी,पानी, अग्रि,वायु, आकाश। शरीर रूपी नगरी के भी परमात्मा ने पांच द्वार बनाए हैं,दो कान,दो आँखे, एक मुख ,इन दरवाजों पर श्रीकृष्ण को बैठाओ।

कानों से केवल कथा रूपी अमृत का श्रवण करो,नेत्रों से उस श्याम सलोने की सुन्दर छवि को निहारो और जिह्वा से उसी का संकीर्तन भजन,नाम सुमिरण आदि करो तो यही शरीर मोक्षगामी बन जायेगा, और तन्मय होकर आनन्द में झूम उठो और परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए उसी में लीन हो जाओ।

इस प्रकार यदि उसमें लीन हो जाआगे तो सदा सर्वदा के लिए जन्म-मरण ,जय-पराजय, रोग-शोक आदि से मुक्त हो जाओगे। जब जरासन्ध ने 18वीं बार चढ़ाई की तो श्रीकृष्ण और बलराम मथुरा छोडक़र जाने लगे,तो जरासन्ध ने पुकारा,हे रणछोड़! तभी से भगवान् श्रीकृष्ण को गुजरात वाले,रणछोड़ वीरजी कहते हैं।

यह हमेशा देखने में और सुनने में आया हैं,शास्त्र के पीछे,वीरजी लगाते है। यह हमेशा देखने में और सुनने में आया है,शास्त्र इसके प्रमाण हैं कि जब जब भक्तों में दु:ख आया या संकट आया तो उन्होंने भगवान् को पुकारा और वो आए, मनवाछिंत कार्य पूर्ण किए, भक्तों के लिए अपनी बदनामी की भी कोई परवाह नहीं की। अपनी प्रतिज्ञा छोड़ देते हैं परन्तु भक्त की प्रतिज्ञा को अटूट रखते है।

इसलिए मनवांछित फल चाहते हो तो प्रभु श्रीकृष्ण की शरण में अतिशीघ्र चले जाओं।

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