एक पण्डितजी महाराज क्रोध न करने पर उपदेश दे रहे थे। कह रहे थे – “क्रोध आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन है, उससे आदमी की बुद्धि नष्ट हो जाती है। जिस आदमी में बुद्धि नहीं रहती, वह पशु बन जाता है।” लोग बड़ी श्रद्धा से पण्डितजी का उपदेश सुन रहे थे। पण्डितजी ने कहा – “क्रोध चाण्डाल होता है, उससे हमेशा बचकर रहो।” भीड़ में एक ओर एक जमादार बैठा था, जिसे पण्डितजी प्राय: सड़क पर झाड़ू लगाते हुए देखा करते थे।
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अपना उपदेश समाप्त करके जब पण्डितजी जाने लगे तो जमादार भी हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। लोगों की भक्ति-भावना से फूले हुए पण्डित भीड़ के बीच में से आगे आ रहे थे। इतने में पीछे से भीड़ का रेला आया और पण्डितजी गिरते-गिरते बचे! धक्के में वे जमादार से छू गए, फिर क्या था.. उनका पारा चढ़ गया। बोले – “दुष्ट! तू यहां कहां से आ मरा? मैं भोजन करने जा रहा था.. तूने छूकर मुझे गंदा कर दिया.. अब मुझे स्नान करना पड़ेगा।”
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उन्होंने जमादार को जी भरकर गालियां दी। असल में उनको बड़े जोर की भूख लगी थी और वे जल्दी-से- जल्दी यजमान के घर पहुंच जाना चाहते थे। पास ही में गंगा नदी थी लाचार होकर पण्डितजी उस ओर तेजी से लपके। तभी देखते हैं कि जमादार उनसे आगे-आगे चला जा रहा है।पण्डितजी ने कड़ककर पूछा – “क्यों रे जमादार के बच्चे! तू कहां जा रहा है?” जमादार ने जवाब दिया – “नदी में नहाने।
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अभी आपने कहा था न कि क्रोध चाण्डाल होता है.. मैं उस चाण्डाल को छू गया.. इसलिए मुझे नहाना पड़ेगा।” पण्डितजी को जैसे काठ मार गया। वे आगे एक भी शब्द न कह सके। धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, जो शिक्षा आप दूसरों को देते है, उसे पहले स्वयं के जीवन में धारण करो।
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