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झूठा वह है जो विपरीत समझता है। क्योंकि परमेश्वर निमित्त और प्रकृति जगत् का उपादान कारण है। जब महाप्रलय होता है। उस के पश्चात् आकाशदि-क्रम अर्थात् तब आकाश और वायु का प्रलय नहीं होता और अग्न्यादि का होता है,अग्न्यादि-क्रम से और जब विद्युत् अग्नि का भी नाश नहीं होता तब जल-क्रम से सृष्टि होती है। अर्थात् जिस-जिस प्रलय में जहां-जहां तक प्रलय होता है,वहां-वहां से सृष्टि की उत्पत्ति होती है।
पुरूष और हिरण्यगर्भादि प्रथम समुल्लास में लिख भी आये हैं वे सब नाम परमेश्वर के हैं। परन्तु विरोध उस को कहते है कि एक कार्य में एक ही विषय पर विरूद्ध वाद होवे। छ: शास्त्रों में अविरोध देखो दस प्रकार है। जीवन आधार प्रतियोगिता में भाग ले और जीते नकद उपहार
मीमांसा में- ऐसा कोई भी कार्य जगत् में नही होता कि जिस के बनाने में कर्मचेष्टा न की जाय। वैशेषिक में-समय न लगे विना बने ही नहीं। न्याय में -उत्पादन कारण न होने से कुछ भी नहीं बन सकता। योग में-विद्या,ज्ञान,विचार न किया जाय तो नहीं बन सकता। सांख्य में-तत्वों का मेल न होने से नहीं बन सकता। और वेदान्त में- बनाने वाला न बनावे तो कोई भी पदार्थ उत्पन्न हो न सके। इसलिए सृष्टि छ: कारणों से बनती है उन छ: कारणों की व्याख्या एक-एक की एक-एक शास्त्र में है। इसलिए उनमें विरोध कुद भी नहीं?
जैसे छ:पुरूष मिल के एक छप्पर उठा कर भित्तियों पर धरैं वैसा ही सृष्टिरूप कार्य की व्याखा छ: शास्त्रकारों ने मिलकर पूरी की है। जैसे पांच अन्धे और एक मन्ददृष्टि को किसी ने हाथी का एक-एक देश बतलाया। उन से पूछा कि हाथी कैसा है? उन में से एक ने कहा-खम्भे,दूसरे ने कहा सूप-तीसरे ने कहा-मूसल,चौथे ने कहा-फाडू,पांचवे ने कहां-चौतरा और छठे ने कहा- काला-काला चार खम्भों के ऊपर कुछ भैंसा सा आकार वाला है।
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इसी प्रकार आज कल के अनार्ष नवीन ग्रन्थों के पढऩे और प्राकृत भाषा वालों ने ऋषिप्रणीत ग्रन्थ न पढक़र,नवीन, क्षद्रबुद्धिकल्पित संस्कृत और भाषाओं के ग्रन्थ पढक़र, एक दूसरे की निन्दा में तत्पर होके झूठा झगड़ा मयाया है। इन का कथन बुद्धिमानों के वा अन्य के मानने योग्य नहीं । क्योंकि जो अन्धों के पीछे अन्धे चलें तो दु:ख क्यों न पावें? वैसे ही आज कल के अल्प चिद्यायुक्त,स्वार्थी इन्द्रियाराम पुरूषों की लीला संससार का नाश करने वाली है।
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