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जो नर शरीर से चोरी,परस्त्रीगमन,श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है उस को वृक्षादि स्थावर का जन्म: वीणा से किये पाप कर्मो से पक्षी और मृगादि तथा मन से किये दुष्ट कर्मो से चाण्डाल आदि का शरीर मिलता है।
जो गुण इन जीवों के देह में अधिकता से वत्र्तता है वह गुण उस जीव को अपने सदृश कर देता है।
जब आत्मा में ज्ञान हो तब सत्व: अब अज्ञान तब तम,और जब राम द्वेष में आत्मा लगे तब रजोगुण जानना चाहिये। ये तीन प्रकृति के गुण सब संसारस्थ पदार्थो में व्याप्त हो कर रहते हैं।
उस का विवेक इस प्रकार मरना चाहिये कि जब आत्मा में प्रसन्नता मन प्रसन्न प्रशान्त के सदृश शुद्धभनयुक्त वर्ते तब समझना कि सत्वगुण प्रधान और रजोगुण तथा तमोगुण अप्रधान हैं।
जब आत्मा और मन दु:खसंयुक्त प्रसन्नतारहित विषय में इधर उधर गमन आगमन में लगे तब समझना कि रजोगुण प्रधान,सत्तवगुण, और तमोगुण अप्रधान है।
जब मोह अर्थात् सांसारिक पदार्थो में फंसा हुआ आत्मा और मन हो, जब आत्मा और मन में कुछ विवेक न रहैं, विषयों में आसक्त तर्क विर्तक रहित जानने योग्य न हो: तब निश्चय समझना चाहिये कि इस समय मुझ में तमोगुण प्रधान और सत्वगुण तथा रजोगुण अप्रधान है।
अब जो इन तीनों गुणों का उत्तम,मध्यम और निकृष्ट फलोदय होता है उस को पूर्णभाव से कहते हैं।
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