धर्म

ओशो : भ्रांति का नाम माया

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एक स्त्री के तुम में पड़ गये। फिर विवाह का संयोजन किया। चला,जादू शुरू हुआ। विवाह का आयोजन जादू की शुरूआत है। अब एक भ्रांति पैदा करनी है। यह स्त्री तुम्हारी नहीं है, यह तुम्हें पता है अभी। अब एक भं्राति पैदा करनी है कि मेरी हैं,बैंड-बाजे बजाये, बारा चली,घोड़े पर तुम्हें दूल्हा बना कर बिठाया। अब ऐसे कोई घोड़े पर बैठता भी नहीं। अब तो सिर्फ दूल्हा जब बनते हैं ,तभी घोड़े पर बैठते हैं। छुरी इत्यादि लटका दी। चाहे छुरी निकालना भी न आता हो, चाहे छुरी से साग-सब्जी भी न कट सकती हो,मगर छुरी लटका दी। मोर-मुकुट बांध दिये। बड़े बैंड-बाजे शोरगुल- चली बारात। यह भ्रंाति पैदा करने का उपाय है। यह मनोवैज्ञानिक उपाय है। तुम्हें यह विश्वास दिलाया जा रहा है:कोई बड़ी महत्तवपूर्ण घटना घट रही है। भरी घटना घट रही है। फिर मंत्र ,यज्ञ-हवन,पूजा-पाठ… चलती है पक्रिया लम्बी। वह प्रक्रिया सिर्फ मनोवैज्ञानिक है,हिप्रोटिक है। उसका पूरा उपाय इतना है कि यह सम्मोहन गहरा बैठ जाये,कि घटना ऐसी घट गयी कि अब टूट नहीं सकती। गांठ ऐसे बंध गयी कि अब खुल नहीं सकती। फिर कसकर गांठ बांध दी गयी। फिर वेदी के सात चक्कर लगवाये गये हैं और मंत्र पढ़े जा रहे हंै और पंडित-पुरोहित भ्रम पैदा कर रहे हैं कि कोई भारी घटना घट रही है और सारे समाज के सामने घट रही है। तुम्हारे भीतर विश्वास बिठाया जा रहा है धीरे-धीरे। यह सुझाव की प्रक्रिया है,जिसको मनोवैज्ञानिक सजेशन कहते हैं। यह मंत्र डाला जा रहा है तुम्हारे भीतर कि अब तुम दोनों के एक -दूसरे के हो गये हो सदा के लिये। अब मृत्यु ही तुम्हें अलग कर सकती है।
इकट्ठे तुम कभी थे ही नहीं,अब मृत्यु अलग कर सकती है- और कोई अलग नहीं सकता। फिर तुम घर आ गये। अब तुम इस भ्रांति में पड़ गये हो कि तुम पति हो गये हो और तुमने यह मान लिया है कि यह मेरी पत्नी हो गयी है। अब तुम इस भ्रांति में जियोगे। यह जादू…। जमूरा आम खायेगा? …खदर उठायी,आम हो गया। अब यह सारा समाज इसका समर्थन करेगा।…. अब तुम सोच भी नहीं सकते अलग होने की। अब तो बंध गये-सुख में। अब तो हर हाल में बंध गये। अब छूटने का कोई उपाय ही नहीं है।
यह प्रतीति इतनी गहरी बिठायी जाती है कि पत्नी मेरी हो गयी,पति मेरा हो गया । कौन किसका है।
फिर एक दिन तुम्हारा बच्चा पैदा होता है। न पत्नी तुम्हारी थी न पति तुम्हारा था। दो झूठो पर एक तीसरा झूठ यह चला कि यह बच्चा मेरा है,हमारा है। सब परमात्मा का है। तुम्हारा कैसे हो सकता है? बच्चे तुमसे आते हैं ,तुम्हारे नहीं है। तुम केवल मार्ग हो उनके आने का। भेजने वाला कोई और है। तुम बनाने वाले नहीं हो, बनाने वाला कोई और है। मगर भ्रंातियां चलती रहती है मेरा बेटा। फिर मेरे बेटे की प्रतिष्ठा, मेरी प्रतिष्ठा। मेरे बेटे का अपमान, मेरा अपमान। फिर चले तुम। फिर लगे तुम चेष्टा में। अब बेटे का बनाना है ऐसा कि तुम्हारा अंहकार भरे इससेञ तुम तो चले जाओ, लेकिन लोग याद करें कि एक बेटा छोड़ गये। उल्लू मर गये,औलाद छोड़ गये।
एक भ्रांति से दूसरी भ्रांति,तीसरी भ्रांति हम खड़ी करते चले जाते हैं। एक हम महल खड़ा कर देते हैं भ्रांतियों का। इस भ्रांति का नाम माया है।
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