धर्म

सत्यार्थप्रकाश के अंश —30

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मनुष्यों को सदा इस बात पर ध्यान देना रखना चाहिये कि जिस का सेवन रागद्वेषरहित विद्वान् लोगनित्य करें,जिस का हृदय अर्थात् आत्मा से सत्स कत्र्तव्य जानें, वही धर्म माननीय और करणीय है। क्योंकि इस संसार में अत्यन्त कामात्मा और निष्कामता श्रेष्ठ नहीं है। वेदार्थज्ञान और वेदोक्त कर्म से सब कामना ही से सिद्ध होते हैं। जो कोई कहे कि मैं निरिच्छ और निष्काम हूं वा हो जाऊं तो वह भी नहीं हसे सकता क्योंकि सब काम अर्थात् यज्ञ,सत्यभाषणादि व्रत,यम नियमरूपी धर्म आदि संकल्प ही से बनते हैं।
क्योंकि जो-जो हस्त,पाद,नेत्र मन, अािद चलाये जाते हैं वे सब कामना ही से चलते हैं। जो इच्छा न हो तो आंख का खोलना और मीचना भी नहीं हो सकता। इसलिये सम्पूर्ण वेद,तनुस्मृति तथा ऋषिप्रणीत शास्त्र,सत्यपुरूषों का आचार और जिस-जिस कर्म में अपना आत्मा प्रसन्न रहे अर्थात् भय, शंका,लज्जा जिस में न हो उन कर्मो का सेवन करना उचित है। देखो जब कोई मिथ्याभाषण,चोरी, आदि की इच्छा करता है तभी उस के आत्मा में भय, शंका,लज्जा अवश्य उत्पन्न होती है इसलिये वह कर्म करने योग्य नहीं।
मनुष्य सम्पूर्ण शास्त्र वेद,सत्यपुरूषों का आचार,अपने आत्मा के अविरूद्ध अच्छे प्रकार विचार कर ज्ञाननेत्र करके श्रुति-प्रमाण से स्वात्मानुकुल धर्म में प्रवेश करे। क्योंकि जो मनुष्य वेदोक्त धर्म और जो वेद से अविरूद्ध स्मृत्युक्त धर्म का अनुष्ठान करता है वह इस लोक में कीर्ति और करके सर्वोत्तम सुख को प्राप्त होता है। श्रुति वेद और स्मृति धर्मशास्त्र को कहते हैं। इन से सब कत्र्तव्याकत्र्तव्य का निश्चय करना चाहिये।
जो कोई मनुष्य वेद और वेदानुकू ल आप्तग्रन्थों का अपमान करे उस को श्रेष्ठ लोग जातिब्रह्म कर दें। क्योंकि वेद की निन्दा करता है वही नास्तिक कहाता है।
इसलिए वेद,स्मृति,सत्यपुरूषों का आचार और अपने आत्मा के ज्ञान से अविरूद्ध प्रियाचरण,ये चार धर्म के लक्षण अर्थात् इन्हीं से धर्म लक्षित होता है।
परन्तु जो द्रव्यों के लोभ और काम अर्थात् विषयसेवा में फंसा हुआ नहीं होता उसी को धर्म का ज्ञान होता है। जो धर्म को जानने की इच्छा करें उनके लिये वेद ही परम प्रमाण है। इसी से सब मनुष्यों को उचित है कि वदोक्त पुण्यरूप कर्मो से ब्रह्मण,क्षत्रिय,वैश्य अपने सन्तानों का निषेकादि संस्कार करें। जो इस जन्म वा परजन्म में पवित्र करने वाला है।
ब्रह्मण के सोलहवें,क्षत्रिय के बाईसवें और वैश्य के चौबीसवें वर्ष में केशान्त कर्म और मुण्डन हो जाना चाहिये अर्थात् इस विधि के पश्चात् केवल शिखा को रख के अन्य डाढ़ी मूँछ और शिर के बाल सदा मुंडवाते रहना चाहिये अर्थात् पुन: कभी न रखना और जो शीतप्रधान देश हो तो कामचार है चाहै जितने केश रक्खे और जो अति उष्ण देश हो तो सब शिखा सहित छेदन करा देना चाहिये क्योंकि शिर में बाल रहने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। डाढ़ी मुछ रखने से भोजन पान अच्छे प्रकार नहीं होता और उच्छिष्ट बालों में रह जाता है।
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