परीक्षित कौन था। परी+इक्षित परि अर्थात् घिरा हुआ और ईक्षित नजरों से,जो चारों तरफ से बुरी दृष्टियों में घिरा हुआ था। भगवान् ने आकर उसकी रक्षा की,इसीलिए नाम रखा परीक्षित। विचार कीजिए हमारे और आपके माता के गर्भ में 9 मास तक सिर नीचे और पांव ऊपर लटके रहे,तब कितनी घोर यातना सहनी पड़ती है जीवात्मा को। उस समय संकट की घडिय़ों में कौन रक्षा करता है? केवल परीक्षित को शाप नहीं मिला। सोचने पर मनन करने पर पता चलता है कि हर जीव रूपी परीक्षित को सात दिन का समय मिला हुआ है,इन सात दिनों में प्रत्येक प्राणी की मौत अवश्यभावी है। वे सात दिन हैं, सोम,मंगल, बुध, वीर,शुक्र,शनि और रविवार। इन्हीं सात दिनों के अन्दर किसी की भी जीवनलीला समाप्त हो सकती है।
राजा परीक्षित ने पता चलते ही घर बार, सगे-सम्बन्धी,राजपाट सब कुछ छोड़ दिया और गुरूदेव,शुकदेवजी की शरण में जाकर श्रीमद्भागवतकथा का एकाग्रचित होकर श्रवण किया। इस शरीर का भान ही भूल गया,केवल कथारूपी आनन्द का पान किया और ध्यान लग गया परब्रह्म परमात्मा में और वह मुक्ति को प्राप्त हो गया। इसी प्रकार हमें भी परमात्मा की शरण ग्रहण करनी चाहिए। तथा परमात्मा के प्रतीक सद्गुरू की शरण में रहकर अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहिए।
अब प्रश्र होता है कि परीक्षित को ही भागवत क्यों सुनाई गइ? एक बार पाण्डवों ने अश्वमेद्य यज्ञ किया। भगवान् श्रीकृष्ण ने सेवा ली-जितने भी यज्ञ में पधारे सन्त महात्मा गुरूजन थे,उनके पांव धोना, अपने पीताम्बर से पावों को प्रेम से पोंछना और भोजन करने के बाद झूठे बर्तन उठाना तथा साफ सफाई करना। इससे हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि हीं भी ऐसे धार्मिक आयोजन में या सामाजिक आयोजन में जाकर भार मत बनो बल्कि सहायक बनो।
किसी से सेवा मत कराओ बल्कि सबकी सेवा करो। सेवा कार्य सबसे महान् है- तुम सेवा से पाओगे पार। हमेशा याद रखो। शुकदेव महाराज जब कथा स्थल पर पधारे तो श्रीकृष्ण भगवान् ने उनके चरण कमलों को धोया। अपने पीताम्बर से बड़े प्रेम से पौंछा, साष्टांग चरणों में प्रणाम किया,चरणों में संसार नमन करता है, आज शुकदेव मुनि के चरणों में अपना माथा झुकाए हुए हैं और उठने को राजी नहीं है,यह है उनकी विनम्रता का प्रतीक। आपको और हमको भी विन्रम बनना चाहिए।
सन्त महात्मा,गुरूजन तथा अपने से बड़ों का आदर,सत्कार नतमस्तक होकर करना चाहिए ताकि अभिमान में न रहे। जहां अहंभाव है वहां भक्ति नहीं है। शुकदेव जी ने कृष्ण को उठने को कहा तब भगवान बोले,हे महाराज कलियुग में मेरा भक्त परीक्षित शापित होगा, तो आप मुझे वचन दिजिए कि आप उसको श्रीमद्भागवतकथा का अमृतपान अपने मुखारविन्द से करवायेंगे और उसको मुक्ति दिलवायेंगे।
शुकदेवजी ने भगवान् श्रीकृष्ण की प्रार्थना स्वीकार की और राजा परीक्षित को भागवतकथा सुनाने स्वयं कथ स्थल पर पधारे। सभी ने खड़े होकर प्रणाम किया। आदर सहित आसन पर बैठाया और परीक्षित का समबोधित करके कहा,हे परीक्षित तुम बड़े भाग्यशाली हो,जब तुम माता के गर्भ में थे, तो स्वयं भगवान् ने तुम्हारी ब्रह्मास्त्र से रक्षा की। जब तुम्हारा जन्म हुआ तो राज महल में सभी ने मिलकर बड़ी खुशिया मनाई, क्योंकि पाण्डव वंश के तुम इकलौती सन्तान थे, परन्तु तुमने 15 दिनों तक आंखें नहीं खोलीं सभी चिन्तित हुए,अनेकों उपाय करने के बाद तुमने आंखें खोलीं केवल एक मिनट के लिए माँ को अपलक निहारा,फिर आंखें बन्द कर लीं।
इस प्रकार जो भी आपको गोद में लेता उसको एक मिनट देखते और आंखे बन्द कर लेते। सभी जगह पर अफवाह फै ल गई कि आँखें तो बहुत बड़ी बड़ी सुन्दर है परन्तु शायद ज्योति नहीं है, यह सोचकर सभी दु:खी हो गए। द्वारिकापुरी से श्रीकृष्ण पधारे,सभी सुस्त बैठे हुए थे,कहने लगे बधाई हो,बधाई हो। पौत्र जन्मोत्सव पर मुँह मीठा करवाओ। उदास क्यों हो? पाण्डवों ने कहा,भगवान् बच्चा तो हुआ,परन्तु अन्धा है,एक बार एक मिनट के लिए आंखे खोलता है और फिर बंन्द कर लेता है। भगवान ने कहा ऐसा नहीं हो सकता।
भगवान ने उसे अपनी गोद में उठाया और उसने अपलक श्रीकृष्ण को निहारा और निहारता ही रहा, सबको बड़ा आश्चर्य हुआ,तो शुकदेवजी ने इसका कारण बताते हुए कहा, कि बालक ने गर्भ में ही यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जिस भगवान् ने मेरी रक्षा गर्भ में आ कर की हैं, जन्म होने के पश्चात् इन आंखों से मैं उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन् करूंगा। इसीलिए गोद में उठाने वाले का आंख खोलकर पहचानना चाहता था,दूसरी आकृति देख कर आंखे फिर से बन्द कर लेता था। भगवान् के दार्शन करने के पश्चात् उसने आंखे खोलीं।
धर्म प्रेमी आत्माओं। हम सभी को भी यह नियम बनना चाहिए कि इन नयनों में उस मोर मुकुटवाले पीताम्बर धारी,भगवान् की सुन्दर छवि को बसा लें, उसके दर्शन हर क्षण करें, उसीके ध्यान में यह जीवन बीते। अपने शयनकक्ष में परमात्मा का चित्र अवश्य लगाओ ताकि प्रात: काल उठते ही दर्शन से नयन पवित्र हो जायें। अपने मन मंदिर में उसकी छवि बसा लो। जिह्वा से उसी का नाम रटते रहो ताकि मानव जीवन धन्य हो उठे।