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सत्यार्थप्रकाश के अंश—40

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जो जैनियों के तुल्य बनाते तो जैनमत में मिल जाते। इसलिए जैनों की मूर्तियों से विरूद्ध बनाईं,क्योंकि जैनों से विरोध इन का काम और इन से विरोध करना मुख्य उन का काम था। जैसे जैनों ने मूर्तियां नंगी,ध्यानावस्थित और विराक्त मनुष्य के समान बनाई हैं, उन से विरूद्ध वैष्णवादि ने यथेष्ट शृंगारहित स्त्री के सहित रंग राग भोग विषयासक्ति सहितकार खड़ी और बैठी हुई बनाई हैं,। जैनी लोग बहुत से शंख घण्टा घरियार आदि बाजे नहीं बजाते। ये लोग बड़ा कोलाहल करते हैं। तब से ऐसी लीला के रचने से वैष्यणवादि सम्प्रदायी पोपों के चेले जैनियों के जाल से बच के इन की लीला में आ फंसे और बहुत से व्यायादि महर्षियों के नाम से मनमानी असम्भव गाथायुक्त ग्रन्थ बनाये। उन का नाम पुराण रख कर कथा भी सुनाने लगे। और फिर ऐसी-ऐसी विचित्र माया रचने लगे कि पाषाणा की मूर्तियां बनाकर गुप्त कहीं पहाड़ वा जंगलादि में धर आये वा भूमि में गाड़ दीं। पश्चात् अपने चेलों में प्रसिद्ध किया कि मुझ को रात्रि को स्वप्र में महादेव,पार्वती, राधा,कृष्ण,सीता,राम वा लक्ष्मी, नारायण और भैरव हनुमान आदि ने कहा है हम अमुक-अमुक ठिकाने हैं। हम को वहां से ला,मन्दिर में स्थापन कर और तू ही हमारा पुजारी होवें तो हम मनोवाञ्चित फल देंवे।
अब आंख के अंधे और गांठ के पूरे लोगों ने पोप जी की लीला सुनी तब तो सच मान ली। और उन से पूछा कि ऐसी वह मूर्ति कहां पर हैं? तब तो पोर जी बोलो अमुक पहाड़ वा जंगल में चलो मेंरे साथ दिखला दूं। तब वे अन्धे उस धूर्त के साथ चलके वहां पहुंच कर देखा। आश्चर्य होकर उस पोप के पग में गिर कर कहा कि आपके ऊपर इस देवता की बड़ी कृपा है। अब आप चलिये और ,हम मन्दिर बनवा देंवेंगे। उस में इस देवता की स्थापना कर आप ही पूजा करना। और हम लोग भी इस प्रतापी देवता का दर्शन पर्सन करके मनोवाञ्छित फल पावेंगे। इसी प्रकार जब एक लीला रची तब तो उस को देख सब पोप लोगों ने अपनी जीविकार्थ छल कपट से मूर्तियां स्थापन कीं।
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