धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—103

दुनियां में कहावत है कि परमात्मा दानी है परन्तु कभी कभी परमात्मा भिक्षुक भी बनते हैं। आज भगवान् वामन के रूप में राजा बलि के यहां भिक्षा मांगने आ रहे हैं। वामन लंगोटी पहने हुए हैं,पांव में पादुका है,हाथ में कमंडल है,छत्र है, दण्ड है, सिर पर जटाएँ,गले में सुन्दर यज्ञोपवीत है और मुख मण्डल दिव्य तेज से चमक रहा है। सुन्दर रूवरूपवाले वामन भगवान् मस्ती से संकीर्तन करते हुए राजा बलि के दरबार में पहुँच गए।

सब सभासदों ने उस ब्रह्मचारी को देखा तो सबने उठकर स्वागत किया। चरणों में प्रणाम किया। राजा बलि ने मन में सोचा कि मैंने आज तक कई ब्रह्मणों की सेवा की हैं, परन्तु ऐसा सुन्दर स्वरूप तेजस्वी ब्रह्मण कभी नहीं देखा। यह ब्रह्मण कुमार कौन है? इनके रूप को देखकर तो ऐसा लगता है मानो साक्षात् सूर्यनारायण धरा पर आ गए है।

एक बार शंकर से पूछा गया था कि संसार में भाग्यशाली कौन हैं? तो उन्होंने उत्तर दिया था-जो लंगोटी पहनता है ,जितेन्द्रिय है तथा सदा सर्वदा परमात्मा में तल्लीन रहता है वही सर्वाधिक भाग्यशाली है। इसके विपरीत जो हमेशा धन सम्पति और देह में आसक्त रहता है वह भाग्यहीन हैं।

वामन भगवान् का यज्ञ के प्रधानाचार्य शुक्राचार्य सहित सभी ने सत्कार किया। राजा बलि ने सोचा कि यह ब्रह्मण नहीं है,कोई असाधारण और अद्वितीय बालक है यह जानकर राजा बलि वामनजी महाराज को अपने महलों में ले गए। आदर सहित आसन पर बैठाया तथा रानी से पूजा-अर्चना करने के लिए सामान मंगवाया।

बलि राजा की धर्मपत्नी का नाम विंध्यावली और पुत्री का नाम रत्नमाला था। रत्नमाला ने जब बालक वामन जी महाराज का सौन्दर्य देखा तो सोचने लगी कि इनकी माता कितनी भाग्यशालिनी होगी,यह सोचकर उसके मन में वात्सल्य भाव का उदय हुआ तथा दुध पिलाने की इच्छा जागृत हुई, आगे चलकर जब वामन महाराज ने उसके बाप को पाताल में पहुंचाया तो क्रोध इतना आया कि वामन महाराज को मारने की इच्छा हो गई। रत्नमाला इन्हीं दो मनोभावों से अगले जन्म में पूतना बनकर आई और वामन महाराज कन्हैया बनकर आये पूतना ने दुध पीलाकर मारने का प्रयत्न किया,परन्तु कृष्ण ने उसका उद्वार किया।

इधर विंध्यावली वामन महाराज के चरणों पर जलधारा डाल रही है और राजा बलि अपने हाथों से प्रेम मग्न होकर चरण कमलों को धो रहे हैं। राजा बलि ने कहा महाराज, अहोभाव हैं मेरे! आज आपका पदार्पण हुआ। मेरा यज्ञ सफल हो गया महाराज। मैं सोचता हूं कि राज्यभार आपको अर्पित करके मैं ईश्वर भजन के लिए जंगल में चला जाऊं।
वामन महाराज ने कहा,राजन् आपके पितामह प्रहलाद के समान कोई भक्त न हुआ है, और न ही कोई होगा। उनका प्रेम इतना प्रबल था कि भगवान् को खम्बे में से प्रकट होना पड़ा। मैंने सुना है कि आपके पिता राजा विरोचन भी बहुत उदार हृदय थे,उन्होंने इन्द्र के मांगने पर अपना आयुष्य ही दान कर डाला था,परन्तु आप भी उनसे कुछ कम नहीं है, आप में अपने प्रपितामह हिरण्यकाशिप जैसा बल है, प्रह्लाद जैसी भक्ति है तथा विरोचन जैसी उदारता है, आप में अपने पितरों के तीनों गुणों का संगम है, अत: आप बहुत ही भाग्यशाली हैं।

बलि राजा वामन महाराज जी से बहुत प्रभावित हुए और कहने लगे-ब्रह्मणकुमार आप पधारे! आपको मैं नमस्कार करता हूं। आज्ञा कीजिए, मैं आपकी क्या सेवा करूं? आर्य समाज ऐसा जान पड़ता है कि बडे-बडे ब्रह्मार्षियों का तपस्या ही स्वयं मूर्तिमान होकर मेरे सामने आयी हैं।
महाराज आप जो भी चाहें,मांग लिजिए,मैं वचन देता हूं कि आप जो भी मांगोगे,मैं उसे सहर्ष दूंगा और अपना सौभाग्य समझूँगा।

वामन महाराज ने कहा- इसमें सन्देह नहीं कि आप मुँह माँगी वस्तु देने वालों में शिरोमणि हैं। इसलिए मैं आपसे केवल तीन पग भूमि ही माँगता हूं। इतने से ही मेरा काम बन जायेगा। धन उतना ही संग्रह करना चाहिए,जितने की आवश्यकता हो। हे राजन् ! मैं तो सन्तोषी ब्रह्मण हूं मुझे अधिक नहीं, केवल मुझे तीन कदमों में,मैं जितनी भूमि माप सकूं,उतनी जमीन चाहिए। यदि जमीन देना चाहते हो तो संकल्प छुड़वाओ।

राजा बलि अपने गुरूदेव शुक्राचार्यजी के पास गए और कहने लगे,गुरूदेव वामन महाराज ने मुझसे तीन कदम माप कर जमीन माँगी हैं,मैंने हां भर ली है, बड़ा ही सन्तोषी ब्रह्मण हैं। गुरूदेव ने कहा,राजा इन्कार कर दो, वह ब्रह्मण सन्तोषी नहीं हैं, वह भिखारी नहीं है,वह विश्व बिहारी हैं- हे राजन् तीन कदम जमीन में तुम्हारा सब कुछ चला जायेगा।

राजा बलि ने कहा, गुरूदेव दिया हुआ वचन मैं वापिस नहीं ले सकता। दुनिया में आज तक सभी कहते हैं-
दाता एक राम भिखारी सारी दुनिया।
परन्तु,गुरूदेव आज से दुनियां यह कहा करेगी-
दाता एक बलि भिखारी बने भगवान्।
बलि राजा वामन महाराज के पास आए और कहने लगे,महाराज जैसी आपकी इच्छा। आप अपनी इच्छानुसार तीन कदम भूमि जहां से अच्छी लगे नाप लों,महाराज।

शुक्रचार्यजी के समझाने के उपरान्त भी राजा बलि ने संकल्प छुड़वाया और तीन कदम भूमि दान कर दी। अब वामन भगवान ने अपना विराट रूप बनाया। अपने एक ही कदम में सारी पृथ्वी नाप ली,दूसरे कदम में सारे ब्रह्मालोक को व्याप्त कर लिया तीसरे कदम के लिए स्थान ही नहीं बचा तो राजा बलि ने कहा,हे राजन् मैं अपना तीसरा कदम कहां रखूं। राजा बलि ने कहा, महाराज यह तीसरा कदम मेरे सिर पर रख दों। ज्योंहि वामन ने तीसरा पांव बलि के सिर रखा त्योंहि आकाश से पुष्पों की बरसात हुई। बलि को पाताल में ढकेल दिया। बलि की माता के आंखो में आंसू आ गए।

वामन ने कहा तुम्हारी माता रो रही हैं,मैं दान नहीं लूंगा। माता ने कहा—महाराज ये आंसू दु:ख के नहीं अपितु हर्ष के आंसु हैं। आज मुझे आपार हर्ष हो रहा हैं कि एक दिन देव ब्रह्मण बनकर मेरे पति से आयुष्य का दान मांगने आया था तो मेरे पति ने अपना जीवन उनको अर्पण कर दिया था। तब ये बालक बलि मेरी गोदी में था तो मैंने भी पति के साथ सती होना चाहा ,परन्तु मेरे गुरूदेव ने कहा बेटी, पति के अधूरे कार्यो को पूरा करना ही पत्नी का धर्म हैं। अपने पुत्र को अपने पति से अधिक दानी बनाना और वीर बनाना। मैंने उनकी शिक्षा मान ली। आज मुझे गर्व हो रहा है कि धन्य हो गई महाराज आपके दर्शन पाकर और आपको दान लेते देखकर।

जननी धुव्र,प्रह्लाद जैसे भक्त को जन्म दे या हरिश्चन्द्र,कर्ण जैसे दानी को जिसके घर भगवान भी भिखारी बनकर आए, या राणा प्रताप,शिवाजी और छत्रसाल जैसे शूरवीर को । अन्यथा अपने नूर को भक्ति में लगाकर परमात्मा को प्राप्त करना मानव देह को सफल व सार्थक बनाना अच्छा हैं।

धर्म प्रेमी सज्जनों कोई भी दरबार पर कुछ मांगने आता है तो उसे इन्कार मत करो, उसे हाथ का उत्तर दो, वह भिक्षुक मांगने के साथ—साथ यह समझाने भी आता है, कि मैंने पिछले जन्म में दान नहीं दिया था, उसी के परिणामरूवरूप आज मुझे मांगना पड़ रहा है और यदि आप भी कुछ नहीं देंगे तो अगले जन्म में आपको भी मेरे समान दरिद्र होकर मांगना पड़ेगा,इसीलिए बन्धुओं शास्त्रों में वर्णित अपनी सम्पति का दसवां भाग अवश्य दान करो ताकि परलोक में कभी मुसीबत न आए। तन-मन-धन सब उस परमात्मा का है।

इस शरीर पर भी आपका अधिकार नहीं है तो संपत्ति और संतति पर कैसे हो सकता हैं? सब कुछ परमात्मा का हैं, आपका अपना तो केवल सत्कर्म है जितना सत्कर्म आप करोगे,उतना ही आपके साथ जायेगा। जो जीव मेरा मेरा करता है,वही मरता हैं, और जो तेरा—तेरा करता है,परमात्मा उसे ही अपनाते हैं।

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