राजा सगर के 60 हजार पुत्रों की अपने पिता को सशरीर स्वर्ग में भेजने की इच्छा थी। उन्होंने एक अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया। अश्वमेघ यज्ञ के अश्व को छोड़ दिया गया। इन्द्र घबरा गया। इन्द्र सबसे डरपोक और कायर देवता है। इस लोक में कोई भी तपस्या करे, दान करे, दान -पुण्य करे, यज्ञ-हवन करे तो इन्द्र को डर रहता है कि उनके सत्कार्यों के फलस्वरूप उसका सिंहासन न छिन जाए,इसीलिए वह सत्कार्य भंग करने के लिए कभी अप्सराओं को भेजता है तो कभी अन्य साधनों से तपस्या आदि को भंग करने का प्रयत्न करता है।
इन्द्र ने अश्वमेघ का घोड़ा चुरा लिया और कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। कपिल मुनि का आश्रम कलकत्ते से आगे गंगा सागर हैं, वहीं पर बना हुआ था। वहीं पर मुनि रहते थे। जब घोड़ा कहीं नहीं मिला तो सागर राजा के 60 हजार पुत्र घोड़े को खोजते खोजते कपिल मुनि के आश्रम के पास आए, देखा तो घोड़ा वहीं आश्रम में बंधा हुआ था। सोचा यह मुनि ही चोर है और अब ध्यान का ढोंग करके साधक बना हुआ है। कपिल मुनि तो ध्यान में मग्र थे,जब अन्दर में बंशी की धुन सुनाई देती है तो बाहृा जजगत् में क्या हो रहा है,उसको पता नहीं होता। जब अन्दर नाम-जाप चलता रहता है तो बाहर की क्रियाएं स्वत: समाप्त हो जाती हैं। जब अन्दर में दर्शन होते हैं,तो बाहृा जगत् के दर्शन अपने आप दिखने बन्द हो जाते हैं। अन्दर जगत् की विराटता के सामने बाहृा जगत गोण हैं।
जब आप किसी मन्दिर में भगवान् की प्रतिमा के दर्शन कर रहे होते हैं या किसी सन्त महात्मा के आन्निध्य में बैठे होते हैं तो आंखें बन्द होने लगती है या किसी सन्त महात्मा के सान्निध्य में बैठे होते हैं तो आंखें बन्द होने लगती हैं,क्यों? क्योंकि नयन- द्वार से उस छवि को अपने हृदय पर अंकित करना चाहते हैं। आधा घण्टा या एक घण्टे के बाद आप मन्दिर से चले जायेंगे तो हृदय पर अंकित उस छवि को कभी भी निहार सकेंगे। मूर्ति मन्दिर रह जाती है और उसकी छवि हमेशा के लिए हमारे मन-मन्दिर में स्थापित हो जाती है।
सगर के पुत्रों ने जब गालियाँ दी और लात का प्रहार किया तो कपिल मुनि का ध्यान टूटा,आंखे खोली जिनसे तपस्या के तेज से एक ज्योति निकली और सभी वहीं पर एक मिनट में भस्मीभूत हो गए , जलकर राख् हो गए। ऊपर उठने में समय लगता है ,लेकिन नीचे गिरने में समय नहीं लगता। धन कमाने में परिश्रम और समय की आवश्यकता होती है,लेकिन धन-व्यय एक मिनट में हो जाता है। चरित्र उत्थान मेहतन से होता है, पतन तो क्षण में हो जाता है। देखने के साधन हैं- आंखे। किस चीज को किस दृष्टिकोण से देखा जा रहा है, यह व्यक्ति की धारणा पर आधारित हैं।
सन्त-जन इन्हीं आंखों से शान्ति की धारा बहाते हैं,पतितों को पावन बनाते हैं और पापी,कुविचारी इन आंखों से कुदृष्टि से देखकर अनेक प्रकार के पाप करते हैं। तो देखना बुरा नहीं है,दृष्टिकोण अच्छा या बुरा होता हैं। बाज पक्षी उड़ता बहुत ऊंचा है परन्तु उसकी दृष्टि हमेशा मांस पर रहती हैं,बगुले की दृष्टि हमेशा मछली पर रहती है,हँस की दृष्टि मोती ढूंढती है,इसीलिए हे मानव अपनी दृष्टि से हमेशा सद्गुणो को देखो दुर्गुणों को कभी मत देखों।
आपकी जैसी भावना होगी आपको सृष्टि,बाहृा जगत् वैसा ही नजर आने लगेगा। सृष्टि को कोई भी सुधार नहीं सकता। न राम सुधार सके , न ही कृष्ण सुधार सके। कई अपने आप को समाज सुधारक कहते हैं लेकिन कोई समाज को नहीं सुधार सकता, यदि सुधारना चाहते हो तो स्वयं को सुधारो, यदि कोई व्यक्ति सुधर जाता है तो समाज अपने आप सुधर जायेगा। खुद पर शासन करना सीखो फिर अनुशासन की बढ़ो। निज पर शासन फिर अनुशासन। जब सागर के पुत्र वापस नहीं आए, तो उनको ढूंढने के लिए सागर का पौत्र अंशुमान् निकला। अंशुमान भी खोजता खोजता कपि मुनि के आश्रम आया तो सारे वृंत्तात का पता चला। सभी की मृत्यु सुनकर बड़ा दुख हुआ। अंशुमान ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया और उनके उद्धार का उपाय पूछा। कपिल मुनि ने कहा कि इनका उद्धार केवल गंगाजल से ही हो सकता है। यदि गंगाजी यहां धरती पर अवतरित हो जाए, तो उनका उद्धार हो सकता है।
अंशुमान ने उनके पुत्र दिलीप के पुत्र भागीरथ ने, तीनों ने गंगा को प्रसन्न करने के लिए घोर तप किया तभी गंगा जी का अवतरण हुआ। उनकी तपस्या से गंगा प्रकट हुई और कहने लगी मैं वर देने के लिए आई हूं। उनका ऐसा कहने पर राजा भागीरथ ने बड़ी नम्रता से अपना अभिप्राय प्रकट किया कि आप मत्र्य लोक में चलिए।
मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं, भूतल पर आने के लिए भी मैं तैयार हूं,लेकिन मेरी एक शर्त है कि भगवान् शिव अपने सिर पर मुझे धारण करें। भागीरथ ने फिर तपस्या प्रारम्भ की। भगवान शिव से प्रार्थना की कि वे गंगा को अपने सिर पर धाकण करने की कृपा करें। शिवजी तैयार हो गए, उन्होंने गंगा को अपने सिर पर धारण किया। फिर वहाँ से धरती पर प्रवाहित हुई। पूरे भारत को पवित्र करती हुई गंगासागर में आई और वहाँ कपिल मुनि के आश्रम में 60 हजार सागर पुत्रों का उद्धार किया। सबने मिलकर गंगा का गुणगान किया।
इस प्रकार गंगा का अवतरण भूतल पर हुआ। धर्म प्रिय सज्जनों यदि गंगा मृतकों का उद्धार कर सकती है तो जीवित प्राणियों के उद्धार में शंका कैसी? प्रिय बन्धुओं। ज्ञानरूपी गंगा को भगवान् शिव की तरह अपने शीश पर धारण करो, और भक्ति रूपी गंगाजल से अपनी आत्मा पर लगे क्रोध,मान,माया,लोभ, राग द्वेषरूपी मैल को धोकर साफ करो तो निश्चित कल्याण होगा।